"बेटी, ज़रा यह पतीला तो उठा दे नीचे से", कमर के दर्द से परेशान हो, मैने पास खड़ी धन्वी से कहा तो उसने पतीला मुझे पकड़ा दिया।
"कुछ और काम बताओ न दादी"
"लो, यह धनिया पत्ती साफ़ कर दो।"
कुर्सी पर बैठे-बैठे ही वह अपने नन्हें-नन्हें हाथों से धनिया की पत्ती को डंडियों से अलग कर कटोरी में रखने लगी। इस बीच मैने दाल-सब्ज़ी बना ली, फिर उसे नहला-धुला कर तैयार कर दिया तो देखा दोपहर का एक बज चुका है।
"अब तो खाना खाने का समय हो गया न दादी?"
"हाँ बेटी, तुम जा कर अपने पापा और दादा जी को बुला लाओ"
वह दौड़ती हुई कमरे में चली गयी।
"पापा उठो, खाना खा लो, दादा जी उठो, खाना खाओ। ये कोई सोने का टाइम है?"
इतना कह वापिस आ वह एक पटड़े पर खड़ी हो गई और रोटी बेलने की ज़िद करने लगी। सहसा उसके हाथ रुक गये।
"दादी, पापा और दादा जी तो बस आराम ही करते रहते हैं। घर का सारा काम तो मुझे और आपको ही करना पड़ता है, ऐसा क्यों?" उसकी भोली आँखों में ढेरों प्रश्न थे।
"बेटी, तुम्हारे दादा जी की कमर में बहुत दर्द रहता है, तभी तो लेटे रहते हैं और……", मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोल पड़ी, " पर दादी, कमर में तो आपके भी बहुत दर्द रहता है, लेकिन आप……"
एकाएक वह चुप हो गयी। फिर धीरे से बोली, "हम करें भी तो क्या करें, लड़कियां जो हैं। आप भी लड़की, मैं भी लड़की। घर का काम तो हमें ही करना है।"
ऐसा कह वह फिर से टेढ़ी-मेढ़ी रोटियां बेलने लगी और मैं पनियाली आँखों से उसे देखती रह गयी, जिसे केवल पाँच वर्ष की अबोध अवस्था में ही अपने लड़की होने के अर्थ का आभास होने लगा था।
"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, प. 24
3 comments:
बहुत अच्छी लगी ये कहानी हक़ीकत बयान करती हुई।
सच ही तो कहा उसने……… सुंदर भाव ।
ममता जी, पारुल जी, मैं आपके विचारों से माँ को अवगत करा दूँगा। आपके समय और टिप्पणी के लिये बहुत धन्यवाद।
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