Tuesday, September 4, 2007

अपराध-बोध: भाग 2


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छोटी सी ही थी जब माँ चल बसी। तब शराबी पिता और तीन भाइयों का सारा काम उसके नन्हे कंधों पर आ पड़ा। भाई तो समय के साथ-साथ एक-एक कर के दूर-पार बस गये और नशेड़ी पिता ने उसकी उम्र से दस साल बड़े साधारण कद-काठी वाले बिहारी बाबू से उसका गठजोड़ कर सर का बोझ हल्का कर लिया। पर कब उठा पाई वह वैवाहिक जीवन का सुख्। भले ही घर के हालातों को देखते हुए वह सखियों संग सावन के झूले न झूल सकी पर अपनी कुंवारी आँखों में सपने तो उसने भी सजाये थे। किंतु उसके भाग्य में तो अंश-अंश बिखरना लिखा था। भूखी-प्यासी सारी-सारी रात बिना बिस्तर के कड़कती ठंड में ठिठुरती वह सोचा करती, ‘क्या एसा ही होता है विवाह?’ काश उसने विवाह न किया होता। पर वह सदैव मौन धारण किये रही। मुँह खोलती भी तो किसके सामने। भाइयों ने तो कभी उसकी सुधि ली ही नहीं और पिता नशे की हालत में एक ट्रक के नीचे आ स्वर्गवासी हो चुका था। रही बात बिहारी बाबू की, तो वह सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखते थे। एसी ही भयंकर स्थितियों को झेलते हुए समय निकलता रहा और एक दिन उसकी हिटलर सास का देहांत हो गया। अब उसका एक-छत्र राज्य था घर में किंतु उत्साहीनता और असमर्थता आड़े आने लगी क्यों कि अब तक उसका शरीर विभिन्न रोगों से ग्रस्त हो चला था।

तभी बाहर का दरवाज़ा खटका। “अजी सुनते हो, माया आई है”, अपने अतीत से बाहर आ उसने ज़ोर से पति को पुकारा तो वह चौंक कर उठ बैठे और दरवाज़ा खोल दिया। “अब तुम भी हाथ-मुँह धो लो, वह चाय बना रही है", तौलिये से हाथ पोंछते हुए बिहारी बाबू बोले तो नन्हें बच्चे सम मुँह बिसूरते हुए सत्या ने कहा, “हर समय बस यही काम…उठो-बैठो। मुझे नहीं उठना अब।” तब गीले तौलिये से ही उसका मुँह साफ़ कर वह चाय में डुबो-डुबो कर उसे बिस्कुट खिलाने लगे। बाद में स्वयं का नाश्ता कर बरसों पुराना ट्रांज़िस्टर आन कर दिया और कान से लगा समाचार सुनने लगे। एक ज़माना था जब बहुत कुछ पढ़ा-लिखा करते थे पर अब तो सब छूट गया है, बस एक ट्रांज़िस्टर के सहारे ही बाहर की दुनिया को जी लेते हैं।

“बाबू जी, आज तो बीबी को नहलाना होगा। दो दिन हो गये नहाए”, पास खड़ी माया ने पूछा तो उसकी 15-16 साल की बेटी को बरामदे से व्हील-चेयर लाते देख उठ खड़े हुए और अलमारी में से सत्या के धुले कपड़े और तौलिया निकाल लाए। अब तक माया बेटी की सहायता से सत्या को व्हील-चेयर पर बिठा कर नहलाने के लिये बाथरूम में ले गयी थी। फिर देर तक उन्हें नहलाने-धुलाने, कपड़े बदलने और बाल संवारने का क्रम चलता रहा। इसी बीच माया बिस्तर की मैली चादर और तकिये का गिलाफ़ बदल गयी। जब तक सत्या को पुन: बिस्तर पर लिटाया गया, वह थक टूट कर बेहाल हो गयी थी।

घर का सारा काम समाप्त कर, दोपहर का खाना बिहारी बाबू के पास ही टेबल पर रख जब माँ-बेटी चलीं गयीं तो उन्होने उठ कर दरवाज़ा बंद कर लिया। अब माया शाम को आयेगी, धुले कपड़े समेटने, दोपहर के दो-चार बर्तन मांजने और बुज़ुर्गों को चाय-नाश्ता देने।

तभी बिहारी बाबू को सब्ज़ी वाले का ध्यान हो आया और वह धीरे-धीरे चलते दरवाज़े पर जा खड़े हुए। बाहर की दुनिया का रंग ही कुछ और है। खुला-धुला आसमान, चहचहातीं चिड़ियां, दूर-दूर तक फैले पेड़ों पर फुदकती गिलहरियां, फूल-पत्ते और आते-जाते लोगों का भला लगता शाब्दिक सम्मेलन। पहले तो नियम से दूर तक सैर कर आया करते थे। गोल चक्कर के पास यार-दोस्तों से मिलना भी हो जाता था। अब तो धुंधली हो आयी आँखों के कारण बाहर नहीं निकलते। कहीं उल्टे सीधे पैर रपट गया तो और मुसीबत हो जायेगी। फिर सत्या के कारण तो कमरे से हिलना ही नहीं चाहते थे।

तभी मंदिर से आते पड़ोसी मंगत राम ने पूछा, “किसी का इंतज़ार है क्या बिहारी बाबू, जो दरवाज़े पर खड़े हो।” “इंतज़ार किस का भाई साहब, न बाल न बच्चे, न नाती-पोते। बस सब्ज़ी वाले की बाट जोह रहा था”, दीर्घ निश्वास लेते हुए उन्होंने कहा और दूर से सब्ज़ी वाले को आता देख घर से बाहर आ गये। ढेरों हरी, ताज़ी सब्ज़ियाँ ठेले पर हैं। आधा किलो घिया, आध पाव टमाटर, एक पपीता और चार केले तुलवा लिये उन्होने। अधिक का करना भी क्या है। सत्या तो नाम मात्र का ही खाती है। जब तक वह ठीक थी, क्या बढ़िया खाना बनाती थी। अरबी, कटहल, भरवां भिंडी, करेला…उंगलियां चाटते रह जाते थे सब, पर वह स्वयं कहां खा पाती थी कुछ।

“बाबू जी, पैसे”, फेरी वाले की आवाज़ सुन उनकी तंद्रा भंग हुई तो हाथ में पकड़े दस-दस के नोट उसे थमा दिये, फिर अंदर आ सब्ज़ी-फल रसोईघर में रख, हाथों में चुभते छुट्टे पैसे गिनने लगे। कभी ठीक, तो कभी कम पैसे लौटा जाता है सब्ज़ी वाला। माया का भी यही काम है। दांव लगते ही पैसे हड़प लेती है। अब जब घर का राशन-पानी और अन्य सामान लायेगी तो पैसों की थोड़ी बहुत हेरा-फेरी तो करेगी ही। कर भी क्या सकते हैं वह। उनकी अपनी मजबूरी है। आँखों के कारण पैसों का भुगतान करने तक में कठिनाई होने लगी है। फिर भी कोटि-कोटि धन्यवाद है ईश्वर का जो उनकी गृहस्थी की घिसटती गाड़ी चला रहा है।


क्रमश:………






1 comment:

ghughutibasuti said...

आपकी माँ का लेखन तो बाँध लेता है ।
घुघूती बासूती