Wednesday, December 19, 2007

शीर्षक रहित



विदेश आने के बाद जब पहली बार माँ को फ़ोन किया था, तब उन्होंने यह कविता लिख कर भेजी थी मुझे। कई वर्ष बीत गये इस बात को। वो पृष्ठ, जिस पर उनकी हाथ से लिखी हुई यह कविता है, पीला पड़ने लगा है। जहां से पन्ना फ़ोल्ड किया हुआ रखा था, अब छिजने लगा है। आज अपनी पुरानी डायरी खोली तो नीचे आ गिरा। पन्ने पर दिनांक है पर वर्ष नहीं है। शायद इस बात का प्रतीक है, कि किसी माँ की अपने पुत्र के लिये लिखी गयी पंक्तियां किसी वर्ष विशेष के लिये नहीं, अपितु आजन्म के लिये होती हैं। कविता को कोई शीर्षक भी नहीं दिया उन्होंने। शायद किसी शीर्षक में समा नहीं पाईं उनकी भावनाएं।

एक आवाज़;
कहीं दूर से आती हुई,
स्वच्छंद आकाश के समस्त विस्तार को
अपने में समेटे हुए
शून्य की गहराई से उभरती हुई
एक अकेले सांध्य तारे सी बैरागी,
यहीं कहीं
धरती के सब ओर
एकाएक झनझना कर छितर गयी है।

वह दूर की गूंजती आवाज़
अनायास
एक नन्ही सी कोंपल बन
मेरे हृदय की कगार पर
रोपित हो गयी है।

किसी मेरे अपने का
वह धुआं-धुआं सा स्वर
मेरे हर ओर अनेकों प्रश्न बन
बिखर गया है।

बीहड़ में भटकते
उस चातकी स्वर का
भविष्य निर्धारण करना
मेरे बस में नहीं