Sunday, March 23, 2008

कर्तव्य बोध



बाहर;
बौराए मौसम का डर है।
शायद इसीलिये फागुनी फूल
झाँक रहा है मेरी खिड़की से।

किंतु,
कमरे के घुटन भरे परिवेश में
कब तक सुरक्षित रह पायेगा?

इस से तो अच्छा है
महका ले अपना आस-पास
और जी ले जीवन के कुछ
सार्थक हुए पल;
अपनी क्षमता के अनुरूप।

यही सोच
विषम परिस्थितियों को अनदेखा कर
उसे
कर्तव्य बोध की ओर अग्रसर करते हुए
खिड़की बंद कर दी है मैने।

बाहर,
धुंध भरी शाम उतर आयी है
और अंदर
टीसने लगा है मन
ढेरों पिघलती संवेदनाओं के साथ

"चेतना के स्वर", प. 24