Wednesday, July 25, 2007

दोषी कौन



“बीबी जी, गयी रात राघवन ने अपने पड़ोस की ही नाबालिग लड़की से मुँह काला कर लिया। हर ओर उसकी थू-थू हो रही है।” रंगा ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा तो अकस्मात मुझे वह दिन याद आ गया जब समाज की दूषित परम्पराओं के वशीभूत हो चादर डालने की प्रथा के अनुसार पिछले साल ही हमारे माली के बीस वर्षीय बेटे राघवन का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे पंद्रह वर्ष बड़ी विधवा भाभी से कर दिया गया जिसे वह अब तक माँ समान मानता आया था। फलस्वरूप, जो संबंध पति-पत्नी का होता है वह उनके बीच कभी स्थापित ही नहीं हो पाया। अन्तत: गयी रात अपने किन्हीं दुर्बल क्षणों में अत्रिप्त कामनाओं के वशीभूत हो वह अपनी मर्यादा भूल बैठा। राघवन की मन:स्थिति से भलीभान्ति परिचित होते हुए भी आज उसी के सगे-संबंधी और गली-मुहल्ले के लोग उसे कड़ी सज़ा देने के लिये हर ओर मधुमक्खियों की तरह बिखर गये हैं। किंतु दोष क्या केवल राघवन का है?

"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल, प. 56

Wednesday, July 18, 2007

धरातल


शताब्दियाँ बदलीं
किंतु नारी
आज भी, रेत के घरौन्दे सी
हर पल टूटती बिखरती
किसी ठोस धरातल के लिये भटक रही है।

उसका करूण क्रन्दन
वर्षों वर्षों तक
द्रवित करता रहा है
धरती और आकश के अंतस को।
घर के एक कोने से दूसरे कोने तक
छाया सी मंडराती वह
केवल अलग-अलग सम्बोधनों से पहचानी जाती है,
उसकी स्वयं की
कोई पहचान नहीं है शेष।

आधुनिकता का जामा पहन,
भले ही
पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर
चलना सीख गयी हो,
पर नारी की छाप तो अमिट है।
तभी तो
असुरक्षा का साया, यौन शोषण का भय,
घर-बाहर
सब कहीं
उसे आतंकित किये रहते हैं।

दिवार पर लटके कैलेण्डर सी
बदल दिये जाने के डर से
सहमी रहती है वह्।

क्या यही है उसकी नियति
या
वह स्वयं उत्तरदायी है
अपनी ऐसी स्थिति के लिये?
सामाजिक विसंगतियों को भी नकारा नहीं जा सकता,
तथापि
सच तो यह है
कि अधिकतर नारी ही
नारी का शोषण करती आयी है,
कभी
नाच और संगीत की आड़ में
कोठों को सदा बहार बनाये रखने के लिये
तो कभी
दहेज अथवा बहू के बांझ होने के नाम पर
वह चुपके-चुपके
अमानवीय क्र्त्यों के चक्रव्यूह रचती है।

इतना ही नहीं,
नारी मन के रहते
अपनी कोख की अजन्मी कन्या की
हत्या करने से भी वह चूकती नहीं;
छि:
ऐसा घोर निरादर
‘माँ’ और ‘ममता’ जैसे पावन शब्दों का।

जब नारी ही नारी की शत्रु है
तो फिर
दूसरे क्यों कर उसे सम्मान दे पायेंगे।
ऐसे में
शोषित, तिरस्क्रत और कलंकित
वह
यूँ ही
भटकती रहेगी
किसी ठोस धरातल की खोज में।
"चेतना के स्वर", हिंदी भाषा सम्मेलन, प. 69-71

Saturday, July 14, 2007

संस्कार



“यह क्या माँ, आज फिर अंगूठे पर पट्टी?” – नाश्ता करने के लिये कुर्सी पर बैठते हुए गौरव बोला।

“यह तो तुम्हारे बाबू जी की पुरानी आदत है न…तिल का पहाड़ बनाने की। ज़रा सा चाकू क्या लग गया, लगे डिटौल और पट्टी ढूँढने। और कुछ नहीं।“

“कुछ कैसे नहीं? हज़ार बार कहा है सब्ज़ी काटते समय अंगूठे पर कपड़ा लपेट लिया करो, पर मानो तब न। बरसात का मौसम है, घाव पक गया तो मुसीबत हो जायेगी।“ – पिता ने शिकायती स्वर में कहा तो गौरव ने एक गहरी नज़र माँ पर डाली और जल्दी ही नाश्ता समाप्त कर उठ खड़ा हुआ।

“अच्छा माँ, बाबू जी, अब चलता हूँ। पर आप दोनों को याद है न कि आज मुझे पी.ऐच.डी. की डिग्री मिलने वाली है? इस लिये घर लौटने में थोड़ी देरी हो जायेगी।”

“सुनिये जी, इतनी बड़ी डिग्री मिलने वाली है हमारे बेटे को। इस ख़ुशी के अवसर पर हमें भी तो चाहिये कि उसे कुछ दें। पर दें क्या?”

“इस में सोचना क्या? मेरे विचार से तो उसे गर्म सूट का कपड़ा ले देना चाहिये। अब पढ़ाई पूरी कर चुका है, कल को नौकरी ढूंढेगा, जगह-जगह इंटरव्यू देने जायेगा। कम से कम एक तो ढंग का सूट होना चाहिये उसके पास।”

“बात तो ठीक है आपकी, पर अच्छा कपड़ा तो चार-पाँच हज़ार के करीब आयेगा और इतने पैसे…?”

“कोई बात नहीं, मैं प्रबंध कर लूँगा।”

शाम को चाय पार्टी की समाप्ति के बाद गौरव जब घर लौटा तो उसके बाबू जी ने उसे गले से लगाते हुए कहा, “डिग्री मिलने की बहुत-बहुत बधाई हो बेटा। ये लो पाँच हज़ार रुपये और हमारी ओर से उपहार स्वरूप अपनी पसंद का गर्म सूट का कपड़ा खरीद लो।”

“धन्यवाद बाबू जी” – कह कर गौरव ने पिता के पैर छू लिए। अगले दिन बाज़ार से लौटते ही गौरव ने एक बड़ा सा डिब्बा माँ के सामने रख दिया। “माँ, यह मैं तुम्हारे लिये लाया हूँ। यह फ़ूड-प्रोसेसर है जो बहुत काम की चीज़ है। इस में सब सब्ज़ियाँ कट जाती हैं…मसाला पिस जाता है…यहां तक कि आटा भी गुँध जाता है। इसके आने से आप को तो आराम हो ही जायेगा, साथ ही बाबू जी को भी, क्यों कि अब उन्हें डिटौल और पट्टी ढूंढने के लिये इधर उधर भागना नहीं पड़ेगा।” इतना कह गौरव हँस पड़ा।

“यह तूने क्या किया बेटा?” माँ की आँखें भर आईं – “अपने सूट के बदले यह फ़ूड प्रोसेसर खरीद लाया। पर क्यों?”

क्यों कि माँ मुझे आपके और बाबू जी के असीम प्यार और आशीर्वाद के अतिरिक्त अन्य किसी उपहार की आवश्यकता ही नहीं है” – गौरव नें माँ के ख़ुरदरे, जगह-जगह से कटे-फटे हाथों को प्यार से सहलाते हुए कहा तो माँ यह सोच कर गदगद हो उठी कि उसके पुत्र ने केवल औपचारिक उच्च शिक्षा ही प्राप्त नहीं की, अपितु त्याग एवं नि:स्वार्थ भाव जैसे उन शुभ संस्कारों की गरिमा को भी बनाये रखा है जो वह उसे बचपन से देती आ रही थी।


"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल, प. 45-46

Thursday, July 12, 2007

विष-अम्रित



"ये क्या सड़े-गले आम डाल दिये हैं लिफ़ाफ़े में, ऐसे फल खिला कर मारना है क्या हमें? सच हेरा-फेरी में तुम लोगों का जवाब नहीं", भुनभुनाते हुए वह आधुनिक महिला दाग़ लगे आमों को लिफ़ाफ़े से निकाल-निकाल कर कूड़े के ढेर की ओर उछाल रही थी, जिन्हें छमिया की गिद्ध द्रिष्टी ने दूर से ही देख लिया। वह दौड़ती हुई उस ओर लपकी और पल भर में ही सात-आठ बदरंग आम अपनी फटी झोली में समेट लिये।

"अरे ओ मंगू, कालू, भौंरी, देखो तो तुम्हारे लिये क्या लाई हूँ", सड़क पार पहुंच कर उसने बच्चों से कहा और थोड़ी ही देर में उसके वे छोटे-छोटे बच्चे नंगे पैर, नंगे शरीर, म ई मास की तपती सड़क पर मस्ती से आम खाते दिखाई दिये। "कितने मीठे और स्वाद हैं न ये आम", होंठों पर जीभ फिराते, प्रसन्नचित्त एक-दूसरे को निहारते वे कह रहे थे।

कैसी विडम्बना है यह, एक ही वस्तु किसी एक के लिये विष तो दूसरे के लिये अम्रित कैसे हो जाती है?



"समय का दर्पण", सुकीर्ती प्रकाशन, कैथल, प. 12