Wednesday, July 18, 2007

धरातल


शताब्दियाँ बदलीं
किंतु नारी
आज भी, रेत के घरौन्दे सी
हर पल टूटती बिखरती
किसी ठोस धरातल के लिये भटक रही है।

उसका करूण क्रन्दन
वर्षों वर्षों तक
द्रवित करता रहा है
धरती और आकश के अंतस को।
घर के एक कोने से दूसरे कोने तक
छाया सी मंडराती वह
केवल अलग-अलग सम्बोधनों से पहचानी जाती है,
उसकी स्वयं की
कोई पहचान नहीं है शेष।

आधुनिकता का जामा पहन,
भले ही
पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर
चलना सीख गयी हो,
पर नारी की छाप तो अमिट है।
तभी तो
असुरक्षा का साया, यौन शोषण का भय,
घर-बाहर
सब कहीं
उसे आतंकित किये रहते हैं।

दिवार पर लटके कैलेण्डर सी
बदल दिये जाने के डर से
सहमी रहती है वह्।

क्या यही है उसकी नियति
या
वह स्वयं उत्तरदायी है
अपनी ऐसी स्थिति के लिये?
सामाजिक विसंगतियों को भी नकारा नहीं जा सकता,
तथापि
सच तो यह है
कि अधिकतर नारी ही
नारी का शोषण करती आयी है,
कभी
नाच और संगीत की आड़ में
कोठों को सदा बहार बनाये रखने के लिये
तो कभी
दहेज अथवा बहू के बांझ होने के नाम पर
वह चुपके-चुपके
अमानवीय क्र्त्यों के चक्रव्यूह रचती है।

इतना ही नहीं,
नारी मन के रहते
अपनी कोख की अजन्मी कन्या की
हत्या करने से भी वह चूकती नहीं;
छि:
ऐसा घोर निरादर
‘माँ’ और ‘ममता’ जैसे पावन शब्दों का।

जब नारी ही नारी की शत्रु है
तो फिर
दूसरे क्यों कर उसे सम्मान दे पायेंगे।
ऐसे में
शोषित, तिरस्क्रत और कलंकित
वह
यूँ ही
भटकती रहेगी
किसी ठोस धरातल की खोज में।
"चेतना के स्वर", हिंदी भाषा सम्मेलन, प. 69-71

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही बढिया और सत्य बोध कराती रचना है।

Divine India said...

माँ शब्द के आकर्षण ने पहले यहाँ मुझे खींचा जब आया इस छांव में तो बड़ा स्नेह आश्रय पाया…।
सर्वप्रथम तो आपकी माँ मेरा प्रणाम…
दूसरी बात… बहुत सुंदर…समाज के हर वर्ग-कोण-संस्कार पर कड़ा प्रहार करती यह कविता अपने-आप में अनोखी है…कुछ भी कहना भाव को मात्र शब्दों का जामा पहनाना होगा…।