Saturday, July 14, 2007

संस्कार



“यह क्या माँ, आज फिर अंगूठे पर पट्टी?” – नाश्ता करने के लिये कुर्सी पर बैठते हुए गौरव बोला।

“यह तो तुम्हारे बाबू जी की पुरानी आदत है न…तिल का पहाड़ बनाने की। ज़रा सा चाकू क्या लग गया, लगे डिटौल और पट्टी ढूँढने। और कुछ नहीं।“

“कुछ कैसे नहीं? हज़ार बार कहा है सब्ज़ी काटते समय अंगूठे पर कपड़ा लपेट लिया करो, पर मानो तब न। बरसात का मौसम है, घाव पक गया तो मुसीबत हो जायेगी।“ – पिता ने शिकायती स्वर में कहा तो गौरव ने एक गहरी नज़र माँ पर डाली और जल्दी ही नाश्ता समाप्त कर उठ खड़ा हुआ।

“अच्छा माँ, बाबू जी, अब चलता हूँ। पर आप दोनों को याद है न कि आज मुझे पी.ऐच.डी. की डिग्री मिलने वाली है? इस लिये घर लौटने में थोड़ी देरी हो जायेगी।”

“सुनिये जी, इतनी बड़ी डिग्री मिलने वाली है हमारे बेटे को। इस ख़ुशी के अवसर पर हमें भी तो चाहिये कि उसे कुछ दें। पर दें क्या?”

“इस में सोचना क्या? मेरे विचार से तो उसे गर्म सूट का कपड़ा ले देना चाहिये। अब पढ़ाई पूरी कर चुका है, कल को नौकरी ढूंढेगा, जगह-जगह इंटरव्यू देने जायेगा। कम से कम एक तो ढंग का सूट होना चाहिये उसके पास।”

“बात तो ठीक है आपकी, पर अच्छा कपड़ा तो चार-पाँच हज़ार के करीब आयेगा और इतने पैसे…?”

“कोई बात नहीं, मैं प्रबंध कर लूँगा।”

शाम को चाय पार्टी की समाप्ति के बाद गौरव जब घर लौटा तो उसके बाबू जी ने उसे गले से लगाते हुए कहा, “डिग्री मिलने की बहुत-बहुत बधाई हो बेटा। ये लो पाँच हज़ार रुपये और हमारी ओर से उपहार स्वरूप अपनी पसंद का गर्म सूट का कपड़ा खरीद लो।”

“धन्यवाद बाबू जी” – कह कर गौरव ने पिता के पैर छू लिए। अगले दिन बाज़ार से लौटते ही गौरव ने एक बड़ा सा डिब्बा माँ के सामने रख दिया। “माँ, यह मैं तुम्हारे लिये लाया हूँ। यह फ़ूड-प्रोसेसर है जो बहुत काम की चीज़ है। इस में सब सब्ज़ियाँ कट जाती हैं…मसाला पिस जाता है…यहां तक कि आटा भी गुँध जाता है। इसके आने से आप को तो आराम हो ही जायेगा, साथ ही बाबू जी को भी, क्यों कि अब उन्हें डिटौल और पट्टी ढूंढने के लिये इधर उधर भागना नहीं पड़ेगा।” इतना कह गौरव हँस पड़ा।

“यह तूने क्या किया बेटा?” माँ की आँखें भर आईं – “अपने सूट के बदले यह फ़ूड प्रोसेसर खरीद लाया। पर क्यों?”

क्यों कि माँ मुझे आपके और बाबू जी के असीम प्यार और आशीर्वाद के अतिरिक्त अन्य किसी उपहार की आवश्यकता ही नहीं है” – गौरव नें माँ के ख़ुरदरे, जगह-जगह से कटे-फटे हाथों को प्यार से सहलाते हुए कहा तो माँ यह सोच कर गदगद हो उठी कि उसके पुत्र ने केवल औपचारिक उच्च शिक्षा ही प्राप्त नहीं की, अपितु त्याग एवं नि:स्वार्थ भाव जैसे उन शुभ संस्कारों की गरिमा को भी बनाये रखा है जो वह उसे बचपन से देती आ रही थी।


"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल, प. 45-46

7 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत ही अच्छी, भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा। मां-बेटे का प्यार देख मन भर आया

Chandra S. Bhatnagar said...

धन्यवाद श्रीवास्तव साहब। कयी बार आप की टिप्पणी पढ़ी। माँ को शीघ्र बताऊँगा। प्रसन्न हो जायेगी।

Monika (Manya) said...

Dil ko chhune wali kahaani.. kaash sab bachhe aise ho.. aaj ki peedhi ke liye prerak bhi.. poore pariwaar ki tasweer aankh ke saamne aa gayi padhte waqt.. too gud...touchy n emotional.. ye ek Maa hi likh sakti hai...

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही भावपूर्ण कहानी है,दिल को छू गई।बधाई।

Udan Tashtari said...

बहुत भावपूर्ण कथा. यही तो संस्कार हैं जो माँ बाप अपने बच्चों से फल स्वरुप चाहते हैं. बहुत अच्छा लगा पढ़कर, बधाई. लिखते रहें.

Chandra S. Bhatnagar said...

मान्या जी, बाली साहब, लाल साहब, आप सब को बहुत बहुत धन्यवाद्। समय समय पर अपनी माँ की और रचनायें post करता रहूँगा। आशा है आगे भी आप सब पसंद करते रहेंगे।

Gee said...

मा बेटे के परस्पर स्नेह को दर्शाती ये लघु कथा मेरे हृदय को छू गयी .मा की और भी रचनाओ का इंतेज़ार रहेगा हमें.....
उनकी सब रचनाओ मे स्त्री शक्ति का वर्णन सम्मान का एहसास कराता है