Thursday, July 12, 2007

विष-अम्रित



"ये क्या सड़े-गले आम डाल दिये हैं लिफ़ाफ़े में, ऐसे फल खिला कर मारना है क्या हमें? सच हेरा-फेरी में तुम लोगों का जवाब नहीं", भुनभुनाते हुए वह आधुनिक महिला दाग़ लगे आमों को लिफ़ाफ़े से निकाल-निकाल कर कूड़े के ढेर की ओर उछाल रही थी, जिन्हें छमिया की गिद्ध द्रिष्टी ने दूर से ही देख लिया। वह दौड़ती हुई उस ओर लपकी और पल भर में ही सात-आठ बदरंग आम अपनी फटी झोली में समेट लिये।

"अरे ओ मंगू, कालू, भौंरी, देखो तो तुम्हारे लिये क्या लाई हूँ", सड़क पार पहुंच कर उसने बच्चों से कहा और थोड़ी ही देर में उसके वे छोटे-छोटे बच्चे नंगे पैर, नंगे शरीर, म ई मास की तपती सड़क पर मस्ती से आम खाते दिखाई दिये। "कितने मीठे और स्वाद हैं न ये आम", होंठों पर जीभ फिराते, प्रसन्नचित्त एक-दूसरे को निहारते वे कह रहे थे।

कैसी विडम्बना है यह, एक ही वस्तु किसी एक के लिये विष तो दूसरे के लिये अम्रित कैसे हो जाती है?



"समय का दर्पण", सुकीर्ती प्रकाशन, कैथल, प. 12

1 comment:

उन्मुक्त said...

यही जीवन का सच है।