Wednesday, August 29, 2007

प्राचीन



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

प्राचीन संग्रहालय में घूमते समय नन्हें बेटे ने अपनी माँ से पूछा, "माँ, 'प्राचीन' का क्या अर्थ होता है?"
"बेटा, प्राचीन का अर्थ है पुराना…यानि पुराने समय का। यहाँ जो भी चीज़ें तुम देख रहे हो न, वे सभी सदियों पुरानी हैं, जिन्हें संभाल कर रखा गया है।"
"और पुराने लोग माँ? जैसे हमारे दादा-दादी, जिन्हें बेकार समझ घर से बेघर करने की बात की जाती है…क्या उनकी संभाल नहीं होनी चाहिये?"

साथ खड़े अपने बेटे साहिल की बात सुन सिहर उठी इला और प्रथम बार प्राचीन की महत्ता का बोध हुआ उसे।

"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, प. 14

Saturday, August 25, 2007

मैं और मेरा प्रियतम


दूर कहीं, अम्बर के नीचे,
गहरा बिखरा झुटपुट हो।
वही सलोनी नदिया-झरना,
झिलमिल जल का सम्पुट हो।

नीरव का स्पन्दन हो केवल,
छितराता सा बादल हो।
तरूवर की छाया सा फैला,
सहज निशा का काजल हो।

दूर दिशा से कर्ण उतरती,
बंसी की मीठी धुन हो।
प्राणों में अविरल अनुनादित,
प्रीत भरा मधु गुंजन हो।

उसी अलौकिक निर्जन स्थल पर,
इठलाता सा यह मन हो।
दूर जगत की दुविधा से,
मैं और मेरा प्रियतम हो।


"चेतना के स्वर", हिंदी भाषा सम्मेलन, प. 12

Sunday, August 12, 2007

जीवन और कहानी



माँ अपनी डेढ़ वर्ष की बच्ची को 'प्यासे कौए' की कहानी सुना रही थी जो अपने सिर को पीछे की ओर झुकाये एकटक माँ को निहारती पैर फैलाए सामने बैठी थी और माँ द्वारा बार बार सुनाई जाने वाली कहानी के आगे के अंश अपनी तुतली भाषा में बोल रही थी।

'एक कौआ', माँ ने कहा।

'पासा', (प्यासा) बच्ची।

'घड़े में पानी', माँ।

'तोड़ा', (थोड़ा) बच्ची।

'कौए ने डाले', माँ।

'पतल', (पत्थर), बच्ची।

'पानी आया', माँ।

'ऊपल', (ऊपर) बच्ची।

'कौए ने पिया', माँ।

'पानी', बच्ची।

'कहानी हो गयी खत्म', माँ

इस बार माँ की हथेलियाँ कहानी की समाप्ति की बात करते हुए ऊपर की ओर खुल गयीं थीं, पर बच्ची एकाएक रोने लगी।

'नो, नो कानी नो कतम, कानी ओल, नो कतम'
(नहीं, नहीं कहानी खत्म नहीं, कहानी और)

माँ फिर से कहानी सुनाने लगी।

'एक कौआ'

'पासा', बच्ची ने कहा और एक बार फिर कहानी के अंश दोहराते थक कर सो गयी। उसे सोया देख माँ सोचने लगी कि जीवन और कहानी का तो चोली-दामन का साथ है; जब तक जीवन है, तब तक कहानी है।


"समय का दर्पण', सुकीर्ति प्रकाशन, प. 29-30

Saturday, August 4, 2007

त्रासदी


एसा हादसा -
पहली बार तो नहीं हुआ,
कि जब
पटड़ियों पर दूर-दूर तक फैले
क्षत-विक्षत रक्तरंजित शवों के
आभास मात्र से ही
आँखें नम हुई हों।

लेकिन
हमेशा की तरह
हम
कुछ नहीं कर सके,
केवल
सोचने, घबराने और प्रशासन के प्रति
रोष प्रकट करने के।

चरमराई व्यवस्था का क्या,
राजनितिज्ञों की कुर्सियां सलामत रहें।
हादसों से भरपूर
अख़बारी सुर्खियों का क्या,
यह तो आम बात है उनके लिये।

प्रजातंत्र के नाम पर
जनमानस की छाती पर मूँग दलती
इस स्वार्थपरता का अंत कहां है?
मीलों की दूरी नापता
गहन सन्नाटे को चीरता चीत्कार;
कहां है इस करूण क्रंदन का अंत -
जिसे -
दु:स्वप्न मान भुलाया जा सके?

मरघट बनी
इस व्यवस्था में
कोई गिनती नहीं मरने वालों की,
गिनती है तो मात्र उन पलों की
जो वे जिये,
गिनती है तो सुगंध बिखेरते उन स्पर्शों की
जो घर-परिवारों में रचे बसे हैं,
गिनती है तो उन यादों की
जो टूटे दिलों की कगार पर
चाँद सी टँगी हैं
और
बेकल, बेबस, बरसती उदास आँखें
चकोर हो गयी हैं।

"चेतना के स्वर", हिंदी भाषा सम्मेलन, प. 10-11

Wednesday, August 1, 2007

प्रदूषण


वह तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ा चला जा रहा था कि पुल पार करते समय उसकी नज़र पटरियों के बीच रखे प्लासटिक-नुमा डिब्बे पर पड़ी। कहीं इसमें बम तो नहीं, आतंक-वादियों की सक्रिय होती गतिविधियों पर ध्यान जाते ही उसने सोचा और पलक झपकते ही डिब्बे को नदी में फेंक दिया। इसी बीच धड़धड़ाती हुई गाड़ी उसके निकट आ गयी। तब अपने बचाव का कोई दूसरा रास्ता न देख कर वह रेल की पटरी पकड़ नीचे लटक गया। गाड़ी के निकल जाने के बाद उसने ऊपर उठने की भरसक चेष्टा की किंतु असफ़ल रहा।

अब तक कुछ लोग पुल पर आ गये थे। वह मदद के लिये चिल्लाया किंतु उसकी मदद करने की अपेक्षा उन लोगों ने उसे ही आतंकवादी मान कर नदी में गिरा दिया। तैरना न आने के कारण कुछ देर तो वह पानी में गोते खाता रहा, फिर डूब कर मर गया और मैं समाज के इस दूषित परिवेश के विषय में सोच उद्विग्न हो उठी जहां भय और अविश्वास के वशीभूत हो हम रक्षक को भक्षक मान बैठते हैं।

"दैनिक ट्रिब्यून" में प्रकाशित