Saturday, August 4, 2007

त्रासदी


एसा हादसा -
पहली बार तो नहीं हुआ,
कि जब
पटड़ियों पर दूर-दूर तक फैले
क्षत-विक्षत रक्तरंजित शवों के
आभास मात्र से ही
आँखें नम हुई हों।

लेकिन
हमेशा की तरह
हम
कुछ नहीं कर सके,
केवल
सोचने, घबराने और प्रशासन के प्रति
रोष प्रकट करने के।

चरमराई व्यवस्था का क्या,
राजनितिज्ञों की कुर्सियां सलामत रहें।
हादसों से भरपूर
अख़बारी सुर्खियों का क्या,
यह तो आम बात है उनके लिये।

प्रजातंत्र के नाम पर
जनमानस की छाती पर मूँग दलती
इस स्वार्थपरता का अंत कहां है?
मीलों की दूरी नापता
गहन सन्नाटे को चीरता चीत्कार;
कहां है इस करूण क्रंदन का अंत -
जिसे -
दु:स्वप्न मान भुलाया जा सके?

मरघट बनी
इस व्यवस्था में
कोई गिनती नहीं मरने वालों की,
गिनती है तो मात्र उन पलों की
जो वे जिये,
गिनती है तो सुगंध बिखेरते उन स्पर्शों की
जो घर-परिवारों में रचे बसे हैं,
गिनती है तो उन यादों की
जो टूटे दिलों की कगार पर
चाँद सी टँगी हैं
और
बेकल, बेबस, बरसती उदास आँखें
चकोर हो गयी हैं।

"चेतना के स्वर", हिंदी भाषा सम्मेलन, प. 10-11

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