Wednesday, August 1, 2007

प्रदूषण


वह तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ा चला जा रहा था कि पुल पार करते समय उसकी नज़र पटरियों के बीच रखे प्लासटिक-नुमा डिब्बे पर पड़ी। कहीं इसमें बम तो नहीं, आतंक-वादियों की सक्रिय होती गतिविधियों पर ध्यान जाते ही उसने सोचा और पलक झपकते ही डिब्बे को नदी में फेंक दिया। इसी बीच धड़धड़ाती हुई गाड़ी उसके निकट आ गयी। तब अपने बचाव का कोई दूसरा रास्ता न देख कर वह रेल की पटरी पकड़ नीचे लटक गया। गाड़ी के निकल जाने के बाद उसने ऊपर उठने की भरसक चेष्टा की किंतु असफ़ल रहा।

अब तक कुछ लोग पुल पर आ गये थे। वह मदद के लिये चिल्लाया किंतु उसकी मदद करने की अपेक्षा उन लोगों ने उसे ही आतंकवादी मान कर नदी में गिरा दिया। तैरना न आने के कारण कुछ देर तो वह पानी में गोते खाता रहा, फिर डूब कर मर गया और मैं समाज के इस दूषित परिवेश के विषय में सोच उद्विग्न हो उठी जहां भय और अविश्वास के वशीभूत हो हम रक्षक को भक्षक मान बैठते हैं।

"दैनिक ट्रिब्यून" में प्रकाशित

1 comment:

Monika (Manya) said...

Atyant hi maarmik.. aur kuch der sochne par mazboor kar de aisee rachna.. par ye sab jaanane ke baad koi fir koshish karega rakshak banane ki...