Sunday, September 2, 2007

अपराध-बोध: भाग 1


रात का एक बज चुका है, पर हर रात की तरह बिहारी बाबू की आँखों में लेशमात्र भी नींद का नाम नहीं। रात भर चालीस वाट के जलते रहने वाले बल्ब की रौशनी में भी उन्होंने टटोलते हुए बिस्कुटों वाला डिब्बा उठाया, फिर गहन सन्नाटे में उनका स्वर गूँजा, “बिस्कुट खाओगी सत्या?” पर साथ वाले पलंग पर लेटी पत्नी नि:शब्द पड़ी रही। केवल उसके हिलते दाहिने हाथ ने जागते रहने का संकेत दिया। “पानी पिओगी?”, पुरुष स्वर फिर उभरा। इसके साथ ही धीरे-धीरे खिसकते हुए वह पलंग से उतर गये और अपनी चप्पल ढूंढने लगे जो शायद पलंग के नीचे चली गयी है।

‘यह माया भी कोई काम ढंग से नहीं करती। हज़ार बार कहा है, झाड़ू पोंछा लगाते समय जूते-चप्पल सामने दिवार से लगा दिया कर, पर माने तब न’, मन ही मन खीजते वह नंगे पैर ही पत्नी के सामने जा खड़े हुए। उसका पीला, मुर्झाया मुख और ढांचा रह गये शरीर को देख आँखें भर आईं उनकी। माथे पर भंवर बनाते उसके सफ़ेद बालों को हथेली से पीछे करते थोड़ा झुक कर उन्होंने पुन: पूछा, “थोड़ा पानी पिलाऊँ क्या?” उन्हें एकटक निहारती पत्नी की आँखों ने पल भर में बहुत कुछ कह दिया परंतु प्रत्यक्ष में वह केवल इतना ही बोली, “अब उठे ही हो तो पिला दो।” तब गिलास में से चम्मच-चम्मच भर पानी उसके मुँह में डाल वह अपने बिस्तर पर लेट गये।

अभी पंद्रह-बीस मिनट ही हुए थे लेटे कि पत्नी ने कहा, “छाती बहुत जल रही है, कुछ करो।” तब घुटने मोड़ वहीं पलंग पर बैठे-बैठे ही बिस्तर के साथ लगे रैक पर रखी शीशी में से एक गोली निकाल कर उन्होंने पत्नी के मुँह में डाल दी। “क्या बजा है?”, उसने पूछा। “ढाई”, सामने दिवार-घड़ी के नज़दीक जा कर, उस पर दृष्टी जमाये ही उन्होंने कहा और साथ लगे बाथरूम की ओर मुड़ गये। बाथरूम से बाहर आते ही साथ वाला पलंग फिर चरमराया, “जी मिचला रहा है, बिठा तो दो थोड़ी देर के लिये।”

पहले तो वह डबल-बेड पर उनके साथ ही सोती थी पर पिछले एक साल से स्प्रिंग वाले पलंग पर सोती है जिस पर बिछे गद्दे में सुराख़ हैं, जिन से हवा छनती रहती है। फलस्वरूप, उसकी पीठ पर घाव नहीं होते। पलंग का हैंडल घुमा उसे बैठने लायक बना दिया उन्होंने, पर वह बहुत नीचे खिसक आयी थी, इसलिये दोनों कंधों के बीच हाथ डाल कर खींचते हुए उसे बिठाना पड़ा। इतने में ही बुरी तरह हाँफ़ गये वह और कुर्सी खींच कर वहीं सत्या के पास बैठ गये। अब इस 75 वर्ष की उम्र में क्या आसान है यह सब करना। घुटनों का दर्द जी का जंजाल बना है और आँख कान भी जवाब दे रहे हैं। संभवत: इसी कारण चेतना अधिक जागरूक हो गयी है। तभी तो ध्यान हर पल सत्या की ओर ही लगा रहता है ताकि कोई अनसुनी घड़ी उन्हें पछतावे से न भर दे। पर पछ्तावे का दंश तो उन्हें पिछले कयी वर्षों से साल ही रहा है।

जब समय था तब तो ध्यान नहीं दे पाये सत्या की ओर, और अब जब अपने दायित्वों का भान हुआ तो बंद मुट्ठी से रेत की तरह समय हाथ से निकल चुका था। सही उम्र में विवाह हो गया था बिहारी बाबू का। सुंदर, सुशील दुल्हन तितली सी उड़ती फिरती थी घर भर में। किंतु तीन वर्ष बीतने पर भी जब वह माँ नहीं बनी तो सास उसे साथ ले साधु, महात्माओं के चक्कर काटने लगी। टोनों टोटकों और झाड़-फूंक का सहारा भी लिया किंतु सब विफ़ल रहा। फिर दौर चला सत्यवती के प्रति सास की प्रताड़नाओं का। भरी सर्दी में भी वह छत पर बिना बिस्तर के सुलाई जाती और खाने-पीने से भी वंचित रखा जाता उसे। घर में बंधे जानवर से भी अपनापन हो जाता है पर उसके लिये किसी के मन में रत्ती भर सहानुभूति नहीं थी। धीरे-धीरे उसकी कुंदन सी देह मिट्टी होने लगी। बांझ बहू किस काम की, इसलिये एक दिन सास ने बिहारी बाबू से दूसरा विवाह कर लेने की बात कही। हालांकि वह माँ के आज्ञाकारी पुत्र थे और उनकी कही हर बात उनके लिये पत्थर की लकीर थी किंतु दूसरे विवाह की बात पर उन्होंने चुप्पी साध ली क्यों कि वह जानते थे कि उन में ही पिता बन पाने की क्षमता नहीं। किंतु अपनी इस कमी को वह कभी किसी के सामने प्रकट नहीं कर पाये, और न ही दूसरे विवाह की हामी भरी। फलस्वरूप, माँ का दुर्व्यवहार पत्नी के प्रति दिनों दिन बढ़ता ही गया। इस पुरुष-प्रधान समाज में पिसती तो हमेशा नारी ही है। यही सत्या के साथ भी हुआ। सम्पूर्ण होते हुए भी बांझ समझी जाने के कारण हर पल दुत्कारी गयी और सामाजिक परिवेश में अपना सम्मान खो बैठी।

तभी दरवाज़े के सामने से गुज़रते चौकीदार की आवाज़ से उनकी तंद्रा भंग हुई तो पत्नी की ओर देखा जो बैठे-बैठे ही ऊंघ रही थी। “सत्या, अब लेट जाओ, बहुत देर से बैठी हो।”, एक ओर को लुढ़के उसके सर को सीधा कर, पीठ पीछे लगे दोनों तकिये निकालते हुए उन्होंने कहा। “अब तुम भी जा कर लेट जाओ, सारी रात क्या यूँ ही मेरे सरहाने बैठे रहोगे?”

तब बिस्तर पर लेटते ही थकावट के कारण उनको नींद आ गयी। पर सत्या दुबारा नहीं सो सकी और समय चक्र से घूमते पंखे पर दृष्टी गड़ाये अपने अतीत में खो गयी।


क्रमश:……


नवीनतम कथा संग्रह "डूबते सूरज के साथ" में से…


1 comment:

ghughutibasuti said...

क्या समाज है हमारा ! स्त्री बेचारी भुगतती रही और पुरुष यह न कह सका कि गड़बड़ क्या है । पति का पिता न बन सकना या पत्नी का माँ न बन सकना दोनों कोई अपराध नहीं हैं पर अपराध है कि दूसरे को प्रताड़ित होते देख भी सच ना बोल सकना ।
बहुत मार्मिक लेखन है ।
घुघूती बासूती