अविनाश की मृत्यु के समय दोनो भाई, भाभियां, मेघा……सभी आये थे। मेघा पूरे दो महीने रही थी उसके पास। उसी दौरान उसने सुगंधा से माँ के बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में बात भी की थी – “सुगंधा, लगता है माँ कुछ ठीक नहीं हैं, कुछ भी तो खाती, पीती नहीं, दिनों दिन कमज़ोर होती जा रहीं हैं।”
“नहीं दीदी, तुम्हें वहम हो गया है। बुढ़ापा है, ऊपर से मेरा दुख क्या कम है उन्हें। बस इसीलिये कुछ खाने पीने को जी नहीं चाहता होगा” – सुगंधा ने लापरवाही से कहा था। जब तक मेघा रही थी, उसने माँ, सुगंधा और नन्ही शिखा का पूरा-पूरा ध्यान रखा था। पर उसके वापिस लौट जाने के बाद घर भर में गहन उदासी फैल गयी थी। भले ही माँ ऊपर से कितनी सहज और शांत दिखाई देती रहीं हों, किंतु अंदर ही अंदर वह घुटती रहती थीं, रोती रहती थीं। आख़िर वह एक माँ थीं और बेटी की अन्तरव्यथा को उनसे अधिक और कौन समझ सकता था। जाने कब से उनके पेट में हल्का-हल्का दर्द रहने लगा था किंतु सुगंधा की व्यस्तता और उसकी अन्य अनेक प्रकार की चिन्ताओं की बात सोच कर वह हमेशा चुप रह जातीं और अपने कष्ट की बात उससे कभी नहीं करतीं थीं। पर आखिर कब तक? अंदर ही अंदर बिमारी ने उग्र रूप धारण कर लिया था। बाद में पूरा चेक-अप करवाने के बाद पता चला कि उन्हें लीवर का कैंसर हो गया था जो अपनी आख़िरी स्टेज पर था। डाक्टर ने बताया कि उनके जीवन के मात्र दो-तीन महीने ही शेष रह गये हैं।
कैसी बौराई सी देखती रह गयी थी सुगंधा माँ को। तब उसे पहली बार माँ का चेहरा बहुत कमज़ोर दिखाई देने लगा था। गाल अंदर को धँस गये थे। आँखों के नीचे काले घेरे उभर आये थे और सारा शरीर झुर्रियों से भर गया था। मेघा तो पहले ही सचेत कर गयी थी पर वह ही कहाँ ध्यान दे पायी थी माँ की ओर। सारा दोष उसका है, केवल उसका। ऐसा मान, जाने कितने दिनों तक वह अंदर ही अंदर छटपटाती रही थी, हताहत होती रही थी। फिर उसके बाद शुरु हुआ था अस्पताल, डाक्टर, दवाइयों और टेस्ट का लंबा सिलसिला।
माँ अक्सर खोई-खोई आँखों से उसकी ओर निहारा करती थीं। एक रात उसके बाल सहलाते हुए बोलीं, “मैं जानती थी कि मुझे कैंसर है पर इसमें इतना घबराने वाली क्या बात है। हर किसी को कभी न कभी, किसी न किसी तरह इस संसार से विदा लेना है। समझो कि मेरा भी अंत समय अब निकट आ गया है। बस एक ही चिंता है कि मेरे बाद तुम्हारा क्या होगा?” कैसी काली घटाऐं उमड़ आई थीं माँ की धुंधली हो आई पनीली आँखों में। इसके बाद उनकी हालत दिन पर दिन ख़राब होती गयी थी।
दोनों भाई, भाभियां पहुंचे थे माँ को अपने साथ लिवा ले जाने के लिये। माँ भी उनके साथ जाने को तैयार थी पर सुगंधा उन्हें कहीं भी किसी के भी पास नहीं भेजना चाहती थी। कई रातें वह अच्छी तरह सो नहीं पाई थी। रह-रह कर दोनो भाभियों का व्यक्तित्व उसके सम्मुख उजागर हो उठता था। छोटी भाभी, जो मुंबई में रहती थी, अपने दो साल के बेटे अंकुर को क्रैच में छोड़कर जाती थी। वैसे भी उसका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं रहता था। वह भला माँ को कैसे संभाल पायेगी। और बड़ी भाभी, उसके चार छोटे-छोटे बच्चे थे। उन्हें तैयार करना, स्कूल भेजना, उस पर घर के ढेरों काम थे करने के लिये। वैसे भी वह माँ को उतना सम्मान कभी नहीं दे पायी जितना उसे देना चाहिये था। उसके पास रह कर, बीमार और पूर्णत: उस पर आश्रित माँ के स्वाभिमान को ज़रा सी भी ठेस पहुंची तो वह और अधिक सहन नहीं कर पायेंगी। दूसरी तर्कसंगत बात यह भी उसके ध्यान में आई कि वह स्वयं डाक्टर है। इसके अतिरिक्त अस्पताल के दूसरे डाक्टर हर समय माँ की देखरेख में लगे रहते हैं। बहुत सोच विचार के बाद उसने माँ को अपने पास ही रखने का अंतिम निर्णय ले लिया और भाइयों को उससे अवगत करा दिया। इस विषय में भाइयों ने भी अधिक तर्क नहीं किया और दो-चार दिन बाद ही अपनी-अपनी नौकरियों और बच्चों के स्कूल की बात कह कर भाभियों सहित वापिस चले गये।
मेघा भी तुरंत चली आयी थी। उन दिनों माँ कुछ खाती पीती नहीं थीं। बस इंजेक्शन के सहारे ही ख़ुराक उनके अंदर पहुंचाई जाती थी। फिर भी मरीज़ के हज़ारों काम होते हैं जिन्हें बड़े धैर्य से करना पड़ता है और मेघा ने वे सब अच्छी तरह संभाल लिये थे। किंतु मेघा भी अधिक समय कहां रह पायी सुगंधा के पास। उसकी सासु-माँ बाथरूम में फिसल कर गिर पड़ीं और मेघा को बेबस हो कर लौटना पड़ा।
सुगंधा एक बार फिर ज़िम्मेदारियों और परेशानियों के साथ अकेली रह गयी थी। कभी-कभी उसका मन विद्रोही हो उठता था। वह सोचती, क्या माँ को संभालने की, सेवा करने की ज़िम्मेवारी केवल उसकी है? क्या औरों का माँ के प्रति कोई कर्तव्य नहीं? किंतु दूसरे ही पल वह स्वयं को कोसने लगती। आख़िर वह किसी दूसरे को दोष क्यों दे? उसने स्वयं ही तो माँ को संभालने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली थी और ऐसा कर के कोई एहसान तो नहीं किया उसने माँ या किसी और पर। यह चारपाई पर पड़ी हुई मजबूर, बीमार औरत उसकी माँ है। उसकी अपनी माँ, जिसने हर दिन, हर रात केवल उसके सुख की, उसकी हँसी-ख़ुशी की बात सोची। अपने को भूल कर केवल उसके दु:ख-सुख में खो जाने की कोशिश की थी। फिर आज उस माँ के प्रति निष्ठावान होने के स्थान पर वह हताश क्यों हो रही है।
इंसान का अपना मन ही उसका सब से बड़ा शत्रु भी है और मित्र भी। बस सोचने का ढंग सही होना चाहिये। एक बार फिर सुगंधा ने ऐसी कठिन परिस्थितियों में अपने आप को संभाल लिया था और किसी और पर आश्रित होने के स्थान पर स्वयं माँ की हर संभव सेवा का दृढ़ निर्णय ले लिया। भाग्य से उन्हीं दिनों, उसे एक पढ़ी-लिखी कुशल काम वाली मिल गयी। देखने में सौम्य और शालीन लगती थी। शीघ्र ही अपनी कार्यकुशलता से उसने सुगंधा का मन जीत लिया। तब सुगंधा ने उसे और उसके पति को घर का सर्वेंट-क्वार्टर रहने के लिये दे दिया था। उसका पति घर का सब काम करने लगा था और नौकरानी मीना ने माँ का सारा काम अपने ऊपर ले लिया था।
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