Sunday, September 16, 2007

चलो गले मिल जाओ



धर्मान्धता की कट्टर
सीमा को तोड़ दो।
कैसा यह अलगाव दिलों का
इसको छोड़ दो।।

मंदिर पर प्रहार हुआ तो,
हिंदु मन क्यों भटका?
गुरुद्वारा जलता देखा तो,
सिक्ख भाई क्यों भड़का?

नहीं खुदा मस्जिद में रहता,
न वाहिगुरू गुरूद्वारे में।
नहीं मसीहा गिरिजाघर में,
देव न देवीद्वारे में।।

जहाँ प्रेम और त्याग, अहिंसा,
सेवा का वहीं निर्झर है।
मानवता हो लक्ष्य जहाँ का,
वहीं ईश्वर का घर है॥

ज्यों प्रकाश धरा को देते,
उज्जवल चांद सितारे।
सत्य धर्म भी सदा सिखाये,
कर्म करो उजियारे॥

मानव निर्मित मंदिर मस्जिद,
फिर से बन जायेंगे।
बिछड़ गए जो भाई-भाई,
फिर कैसे मिल पायेंगे॥

अपने ही हाथों मत काटो,
अपने ही अंगों को।
हा ! विषाक्त क्यों करते जाते,
सुख स्वपनिल इन रंगों को॥

आओ भाईयो साथ चलें हम,
ऐसी विषम घड़ी में।
बिखरे मोती गुँथ जायेंगे,
फिर से एक लड़ी में॥

दुखियारी माता के आँसू,
मिल कर हम पोंछेंगे।
हर अग्नि को शांत करेंगे,
प्रगति का हम सोचेंगे॥

जात-पात के भेद मिटा दो,
सब हैं भारत वासी।
अब न अपने ही घर में हों,
राम पुन: बनवासी॥

बालक हों या युवा नागरिक,
सब को यह समझाओ।
सब अपने ही संगी साथी,
नफ़रत दूर भगाओ॥

हिंसा की चिंगारी त्यागो,
मन की शक्ति बढ़ाओ।
नहीं कोई बेगाना हम में,
चलो गले मिल जाओ॥

"चेतना के स्वर", हिंदी भाषा सम्मेलन, . ४०- ४१

4 comments:

Divine India said...

आपकी माता जी को मेरा नमन…
बेहतरीन कविता है सौहार्द समेटने का उसे बचा कर रखने का… कुछ सीख ही सकता है व्यक्ति उनके विचारों से…।

Chandra S. Bhatnagar said...

आर्यन जी, आप के समय और सराहना के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं आप के विचारों से माँ को अवगत करवा दूँगा। वह प्रसन्न होंगी। एक बार फिर शुक्रिया।

Reetesh Gupta said...

हिंसा की चिंगारी त्यागो,
मन की शक्ति बढ़ाओ।
नहीं कोई बेगाना हम में,
चलो गले मिल जाओ॥

भाई मेरे ...क्या बात है....बहुत सुंदर

बहुत दिनो बाद एक सच्ची कविता पड़ने को मिली

बधाई

Chandra S. Bhatnagar said...

रीतेश जी, सराहना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।