
जब कभी यूसुफ़ ख़ान के बहु-बेटे उनसे मिलने आते, उनकी दृष्टी देर तक उस बक्से पर टिकी रहती जिसमें हमेशा ताला लगा रहता था और जिसे यूसुफ़ ख़ान कभी किसी के सामने नहीं खोलते थे। पर आज उनकी मौत के बाद यह सोच कर कि उनकी सारी जमापूँजी और वसीयतनामा इसी बक्से में होगी, उसका ताला तोड़ दिया गया। किंतु बक्से में से तीन जोड़ी कुर्ते-पायजामों तथा एक पत्र के इलावा उन्हें और कुछ न मिला। पत्र इस प्रकार था:
मैं यूसुफ़ ख़ान,
तुम तीनों बेटों का भाग्यशाली पिता। 'भाग्यशाली' इसलिये कि बुढ़ापे में जो दुर्दिन देखे, तुम लोगों का अपमानजनक व्यवहार, अवहेलना और स्वार्थपरता देखी, उसने आँखें खोल दीं और जीवन के इस कटु सत्य का आभास हुआ कि संसार में कोई अपना नहीं, यहां तक कि अपने बच्चे भी। इसी सत्य बोध से मेरा मोह भंग हो गया।
तुम लोगों की आशा के विपरीत जायदाद के नाम पर बना यह मकान धर्मार्थ दे रहा हूँ ताकि यहां स्कूल खुल सके। रही बात जमापूंजी की, तो अधिकतर पूंजी तुम तीनों की पढ़ाई, विवाह और तुम्हारी स्वर्गवासी माँ की असाध्य बिमारी पर ख़र्च हो गयी। जो थोड़ी बहुत बची है वह घर के पुराने नौकर लखन के नाम कर दी है, जिसने नि:स्वार्थ भाव से मेरी सेवा करते हुए एक सच्चे सेवक होने का धर्म निभाया। शेष बचे कपड़ों में से चाहो तो एक-एक जोड़ी ले लो। क्या पता बुढ़ापे में तन ढकने के काम आएं। बेटे तो तुम लोगों के भी बड़े हो रहे हैं न।
यूसुफ़ ख़ान
पत्र पढ़ कर सब को सांप सूंघ गया और वे फटी आंखों से बक्से में पड़े कपड़ों को देखते रह गये।
"समय का दर्पण', सुकीर्ति प्रकाशन, प. 20-21
2 comments:
बहुत खूब फ़िल्म "
बावर्ची" की याद दिला दी आपके लेख नें ।
Thanks Parul Ji, for your kind words. My mom will be happy to hear about your appreciation.
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