एकाएक चैतन्य हो कर उन्होने पत्नी की ओर देखा जो पूर्ववत पड़ी थी। तभी अपने मन के डर को दूर करने के लिये उन्होने सत्या को ज़ोर से हिलाते हुए कहा, “उठो, थोड़ा पानी पी लो। बहुत देर से सो रही हो, गला सूख गया होगा।" सत्या के आँखें खोलते ही उन्होने चैन की साँस ली और उसे पानी पिलाने लगे। साथ ही पछतावे की भावना एक बार फिर उन पर हावी होने लगी। जैसा कि प्राय: होता आया था, उनके पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प न था कि वह अपने भूतकाल के दानव तथा मानसिक-शारीरिक नपुंसकता का सामना करें जिसने उनकी पत्नी के जीवन के उत्कृष्ट वर्षों को इतना असहाय, निर्बल एवं निरर्थक बना दिया था। उन्हें लगा अपराध-बोध के इस विशाल प्रवाह से बच पाना संभवत: उनके लिये बहुत कठिन था।
तभी सत्या की आवाज़ से वह पुन: सचेत हुए। उसे और पानी चाहिये था। उसकी ओर गहन दृष्टि डालते हुए उन्हें उसके चेहरे की आभा से उसके चरित्र की सबलता का आभास हुआ। साथ ही यह अनुभूति भी हुई कि उनकी कायरता एवं उदासीनता सत्या के समर्पण के गुण को नष्ट करने में सदैव ही असमर्थ रहीं, जब कि वह अपनी माँ के अनुचित व्यवहार के समक्ष झुकते ही रहे।
पर माँ तो केवल एक व्यक्ति……एक शरीर थी और शरीर नश्वर है। इस लिये माँ के निधन को अपनी और सत्या की मुक्ति समझना मात्र एक सरलमति निष्कर्ष होगा। बिहारी बाबू (और फलस्वरूप सत्या) माँ से भी अधिक अपनी भावनात्मक अचेतनता के शिकार थे। और भावनाओं का कोई जीवन-काल नहीं है। किसी भी भावना के प्रति सुषुप्तता अथवा उस से कन्नी काटने की चेष्टा ही उसे और बली बनाती है। मनुष्य केवल अपने विवेक के प्रयोग से उनके प्रती जागरूक हो सकता है और यही जागरूकता मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। इस सत्य से साक्षात्कार होते ही उनके भयावह अतीत की कड़ियां एकाएक खंडित होने लगीं। उन्हें लगा कि वह जीवन-पर्यन्त जिस सत्य से दूर भागते रहे, उतना ही उनकी अक्षमताएं उनका पीछा करती रहीं। फलस्वरूप, उनकी पत्नी का जीवन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों की एक अंतहीन श्रंखला बन कर रह गया।
अब जब वह और सत्या साथ-साथ थे, वह उन अमूल्य क्षणों की क्षतिपूर्ति करने का प्रयत्न करना चाहते थे जिन्हें उन्होने अपने अनुचित व्यवहार के कारण खो दिया था। इस क्षण उन्हे यह समझ आने लगा था कि वह सत्या की संपूर्ण देख-रेख तभी कर सकते हैं जब वह स्वयं को अपने अतीत से पूर्णत: मुक्त कर लें।
गहरे आंतरिक स्तर पर, यह बात उनके हृदय को अंदर तक बेध जाती कि उनके अथक प्रयास के बावजूद भी उनका प्रायश्चित शायद अधूरा ही रह जायेगा……शायद वह उस कारावास से कभी मुक्त नहीं हो पायेंगे, जिस में उन्होने स्वयं ही अपने आप को बंदी बना रखा था। उनका सामना इस तथ्य से भी हुआ कि असीम पछतावे की भावना ही सत्या के प्रति प्रेम एवं सेवा के प्रयत्न में विष घोल देती थी। प्रतिदिन भरसक प्रयास के बावजूद उन्हें यही लगता जैसे कहीं कुछ शेष रह गया है……जैसे सत्या इससे अधिक की अधिकारी है……जैसे नपुंसकता अभी भी किसी न किसी रूप में उन्हें सालती रहती है।
आज जब आचानक सत्या को सदा के लिये खो देने के भय से उनका सामना हुआ तो उनका अन्तर्मन परिवर्तित हो गया। जो साहस वह वर्षों तक नहीं जुटा पाये थे, अकस्मात ही उसकी कोंपलें उनके अंतस में फूटने लगीं। प्रत्यक्ष रूप से अपने अपराध-बोध का सामना करते ही उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह कृतज्ञता के निर्मल प्रवाह से पूर्णत: स्वच्छ हो गये हों और प्रथम बार जीवन के इस सत्य का बोध उन्हे हुआ कि मानसिक जागरूकता ही मुक्ति है। अपने अपराध-बोध के असली स्वरूप और उसके कारणों का ज्ञान होते ही वह उससे मुक्त हो चुके थे। उन्हे लगा जैसे अब तक वह एक दु:स्वप्न देख रहे थे और आँख खुलते ही एक नया सत्य……एक नवजीवन उन्हे इंगित कर अपनी ओर बुला रहा था……वह जीवन जो केवल सत्या और उनका था। अब सभी अवरोध समाप्त हो चुके थे तथा 75 वर्ष की वृद्धकाय अवस्था में भी वह स्वयं को युवा, सबल एवं हर्षित महसूस करने लगे थे।
किसी उचित शब्द के अभाव में यह कहा जा सकता है कि अब उनका प्रायश्चित पूरा हो सकेगा। परंतु प्रायश्चित एक नकारात्मक शब्द है और बिहारी बाबू के मन के सभी अभाव मिट चुके थे। अब वह प्रायश्चित, अपराध, पछतावे जैसी भावनाओं के परे थे और सत्या प्रथम बार पूर्णत: उनके साथ थी।
तभी सत्या की आवाज़ से वह पुन: सचेत हुए। उसे और पानी चाहिये था। उसकी ओर गहन दृष्टि डालते हुए उन्हें उसके चेहरे की आभा से उसके चरित्र की सबलता का आभास हुआ। साथ ही यह अनुभूति भी हुई कि उनकी कायरता एवं उदासीनता सत्या के समर्पण के गुण को नष्ट करने में सदैव ही असमर्थ रहीं, जब कि वह अपनी माँ के अनुचित व्यवहार के समक्ष झुकते ही रहे।
पर माँ तो केवल एक व्यक्ति……एक शरीर थी और शरीर नश्वर है। इस लिये माँ के निधन को अपनी और सत्या की मुक्ति समझना मात्र एक सरलमति निष्कर्ष होगा। बिहारी बाबू (और फलस्वरूप सत्या) माँ से भी अधिक अपनी भावनात्मक अचेतनता के शिकार थे। और भावनाओं का कोई जीवन-काल नहीं है। किसी भी भावना के प्रति सुषुप्तता अथवा उस से कन्नी काटने की चेष्टा ही उसे और बली बनाती है। मनुष्य केवल अपने विवेक के प्रयोग से उनके प्रती जागरूक हो सकता है और यही जागरूकता मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। इस सत्य से साक्षात्कार होते ही उनके भयावह अतीत की कड़ियां एकाएक खंडित होने लगीं। उन्हें लगा कि वह जीवन-पर्यन्त जिस सत्य से दूर भागते रहे, उतना ही उनकी अक्षमताएं उनका पीछा करती रहीं। फलस्वरूप, उनकी पत्नी का जीवन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों की एक अंतहीन श्रंखला बन कर रह गया।
अब जब वह और सत्या साथ-साथ थे, वह उन अमूल्य क्षणों की क्षतिपूर्ति करने का प्रयत्न करना चाहते थे जिन्हें उन्होने अपने अनुचित व्यवहार के कारण खो दिया था। इस क्षण उन्हे यह समझ आने लगा था कि वह सत्या की संपूर्ण देख-रेख तभी कर सकते हैं जब वह स्वयं को अपने अतीत से पूर्णत: मुक्त कर लें।
गहरे आंतरिक स्तर पर, यह बात उनके हृदय को अंदर तक बेध जाती कि उनके अथक प्रयास के बावजूद भी उनका प्रायश्चित शायद अधूरा ही रह जायेगा……शायद वह उस कारावास से कभी मुक्त नहीं हो पायेंगे, जिस में उन्होने स्वयं ही अपने आप को बंदी बना रखा था। उनका सामना इस तथ्य से भी हुआ कि असीम पछतावे की भावना ही सत्या के प्रति प्रेम एवं सेवा के प्रयत्न में विष घोल देती थी। प्रतिदिन भरसक प्रयास के बावजूद उन्हें यही लगता जैसे कहीं कुछ शेष रह गया है……जैसे सत्या इससे अधिक की अधिकारी है……जैसे नपुंसकता अभी भी किसी न किसी रूप में उन्हें सालती रहती है।
आज जब आचानक सत्या को सदा के लिये खो देने के भय से उनका सामना हुआ तो उनका अन्तर्मन परिवर्तित हो गया। जो साहस वह वर्षों तक नहीं जुटा पाये थे, अकस्मात ही उसकी कोंपलें उनके अंतस में फूटने लगीं। प्रत्यक्ष रूप से अपने अपराध-बोध का सामना करते ही उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह कृतज्ञता के निर्मल प्रवाह से पूर्णत: स्वच्छ हो गये हों और प्रथम बार जीवन के इस सत्य का बोध उन्हे हुआ कि मानसिक जागरूकता ही मुक्ति है। अपने अपराध-बोध के असली स्वरूप और उसके कारणों का ज्ञान होते ही वह उससे मुक्त हो चुके थे। उन्हे लगा जैसे अब तक वह एक दु:स्वप्न देख रहे थे और आँख खुलते ही एक नया सत्य……एक नवजीवन उन्हे इंगित कर अपनी ओर बुला रहा था……वह जीवन जो केवल सत्या और उनका था। अब सभी अवरोध समाप्त हो चुके थे तथा 75 वर्ष की वृद्धकाय अवस्था में भी वह स्वयं को युवा, सबल एवं हर्षित महसूस करने लगे थे।
किसी उचित शब्द के अभाव में यह कहा जा सकता है कि अब उनका प्रायश्चित पूरा हो सकेगा। परंतु प्रायश्चित एक नकारात्मक शब्द है और बिहारी बाबू के मन के सभी अभाव मिट चुके थे। अब वह प्रायश्चित, अपराध, पछतावे जैसी भावनाओं के परे थे और सत्या प्रथम बार पूर्णत: उनके साथ थी।
1 comment:
मैंने चारों भाग पढे.. बिहारी बाबू सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी नपुंसकता से ग्रसित थे.. पर जीवन संध्या में ही सही उन्हें सत्या के सत्य और अपने अवसाद की सही वजह का ग्यान हुआ.. और जीवन की इस विकट बेला में इस समर्पण की बेहद जरूरत थी.. कहानी के चारों भाग बेहद सहज और सार्थक हैं..प्र्वाह सतत है.. और पात्रों को सही रूप से उकेरा गया है..उत्तम!!!.. मन की भाव.... हमारे समाज की विडंबनाओं और पति-पत्नी संबंध का सही चित्राण... और अंत मनोवैग्यानिक था..मनुष्य निष्प्क्ष होकर ही सही न्याय कर सकता है.. अपराध-बोध से ग्रसित मन..कभी प्रेम नहीं कर सकता...
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