“अब क्या वहीं घुसे रहोगे पैसों में, या थोड़ा पानी भी पिलाओगे?”, सत्या की आवाज़ सुन जैसे सोते से जागे वह, और पैसों को डिब्बे में डाल, उसे पानी पिलाने लगे। भोजन का समय हो चला था। अक्सर सत्या को बैठने की स्थिति में कर, वह घूमने वाली छोटी मेज़ उसके पलंग से सटा कर उसे खाना परोस देते हैं। वह धीरे धीरे मूंग की धुली दाल में टुकड़े-टुकड़े की गयी रोटी गला-गला कर खाती रहती है। आज खाने की समाप्ति तक कमर के दर्द से बेहाल हो, एक ओर लुढ़क गयी वह। अब तो दो पल का बैठना भी सामर्थ्य से बाहर हो गया है। उसे पुन: बिस्तर पर लिटा बिहारी बाबू स्वयं भी पसीना-पसीना हो वहीं कुर्सी पर बैठ गये।
शरीर भले ही थक जाये किंतु मस्तिष्क तो क्रियाशील रहता है। पुरानी बातें सोचते समय बिहारी बाबू का मन फिर कड़वाहट से भर गया। जब सत्या ठीक थी तो माँ ने उसकी कीमत नहीं पहचानी और फूल सी लड़की का जीवन बर्बाद कर दिया। पर माँ से कहीं अधिक कसूरवार तो वह स्वयं हैं। पौरुषहीन तो पहले से ही थे, संस्कारविहीन और भावविहीन कैसे हो गये? भले ही माँ की मौत के बाद उसकी ओर ध्यान देना शुरू किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एक दिन भयानक पेट दर्द से परेशान सत्या को अस्पताल में भर्ती कराया गया तो पता चला पेट का अल्सर फट गया है। तब मरते-मरते बची थी सत्या। ओस्टोपोरोसिस की वजह से हड्डियां भी खुरने लगीं थीं। एक बार घर के कपड़े सुखाते समय तार से उलझ कर जो गिरी तो फिर नहीं उठ सकी। कमर में एसी चोट लगी कि नीचे का हिस्सा मारा गया और बिना सहारे के उठना-बैठना कठिन हो गया।
बिजली चली गयी थी। सत्या परेशान हो जायेगी, यह सोच अलमारी में से हाथ का पंखा निकाल उसे डुलाने लगे और वह चुपचाप लेटी उन्हें निहारती रही। विश्वास से परे हो गया है बिहारी बाबू का आचरण। क्या यह वही इन्सान है जिसने उसकी पूरी जवानी कोल्हू में पिसते बैल सी स्वाह होती देखी पर कभी सांत्वना के दो शब्द नहीं बोल सका, उसके रिसते घावों पर प्रेम का मल्हम न लगा सका और उसके टूटते मन को सहारे की बैसाखियां न दे सका। पर अब रात-दिन उसी की चिन्ता है उसे, उसी के नाम की पुकार है हर पल। यह अवस्था, उस पर उसके अर्थहीन जीवन का बोझ उठाना, कितना दुरूह है सब। काश! वह इस प्रकार अपंगता की स्थिति में न होती। तभी हिलता पंखा सत्या के चेहरे से टकराया। “ओफ़्फ़ो, नाक तोड़ कर रख दी मेरी। अब जा कर लेट जाओ। बहुत हो गया पंखा डुलाना।” सचेत हो बिहारी बाबू उठ खड़े हुए। तभी बिजली आ गयी। दोपहर के तीन बज रहे थे। बाहर की चौंध आँखों में चुभने लगी तो पर्दे खींच, अंधेरा कर, कूलर चला कर लेट गये वह।
यह नींद भी कैसी अदभुत होती है। पूरी नींद ले लेने पर तन-मन दोनों ही फूल से हल्के हो जाते हैं और हर प्रकार की दुविधा, चिंता से कुछ देर को मुक्ति मिल जाती है। अभी कुछ ही देर आँख लगी थी कि सत्या की आवाज़ से हड़बड़ा कर उठ बैठे। वह बैठना चाहती थी। आधी नींद में बिहारी बाबू एकाएक झल्ला उठे।
“कुछ देर मुझे भी चैन से बैठने दोगी या सारा दिन यूँ ही कांय-कांय करती रहोगी। मैं भी इन्सान हूँ। मुझे भी आराम चाहिये।”
“अरे तो फिर नींद की गोलियां दे कर सुला क्यों नहीं देते इस धरती के बोझ को हमेशा के लिये।”
“अब चुप भी करो, बेकार की बातों से दिमाग मत चाटा करो”, कहते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ गये बिहारी बाबू। माया कब से दरवाज़ा खटखटा रही थी। अंदर आते ही वह समझ गयी कि माहौल गर्म है। बोली, “लाइये बाबू जी, मैं देखती हूँ इन्हे।" बिहारी बाबू की सहायता से उसे बिस्तर पर बिठा वह चाय बनाने चली गयी। जब तक उन दोनो का चाय-नाश्ता समाप्त हुआ, माया काम निपटा कर लौट गयी। सत्या को एक बार फिर लिटा बिहारी बाबू दरवाज़े के सामने कुर्सी खींच कर बैठ गये।
मन बोझिल हो रहा था और नसें टस-टस कर रहीं थीं। आज क्या हो गया था उन्हें जो बेबस पत्नी पर बरस पड़े। आखिर दोष ही क्या था उसका? दोष तो उनका अपना है जो घोड़े बेच कर सोते रहे। दोष तो हमेशा ही उनका ही रहा है।
शाम गहराने लगी थी। धीरे-धीरे दूर-पास की बत्तियां जलने लगीं तो सत्या का ध्यान आया। उठ कर बिजली जलाई तो देखा वह गहरी नींद में थी। जाने क्यों उसे इस प्रकार निश्चल पड़ा देख सिहर उठे वह। सत्या…उसके सिवा उनका है ही कौन इस संसार में। उसकी मौजूदगी का एहसास हर पल घर को क्रियाशील रखता है और एक गति से चलायमान रहते हैं सुबह-शाम, रात-दिन्। सत्या का सान्निध्य ही तो सार्थक करता है घर की परिभाषा को। अन्यथा आस-पास का नि:शब्द ठहराव तो उनके जीवन को घोर एकाकीपन से भर पूर्णत: समाप्त कर देगा और जीते जी मर जायेंगे वह सत्या के बिना।
शरीर भले ही थक जाये किंतु मस्तिष्क तो क्रियाशील रहता है। पुरानी बातें सोचते समय बिहारी बाबू का मन फिर कड़वाहट से भर गया। जब सत्या ठीक थी तो माँ ने उसकी कीमत नहीं पहचानी और फूल सी लड़की का जीवन बर्बाद कर दिया। पर माँ से कहीं अधिक कसूरवार तो वह स्वयं हैं। पौरुषहीन तो पहले से ही थे, संस्कारविहीन और भावविहीन कैसे हो गये? भले ही माँ की मौत के बाद उसकी ओर ध्यान देना शुरू किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एक दिन भयानक पेट दर्द से परेशान सत्या को अस्पताल में भर्ती कराया गया तो पता चला पेट का अल्सर फट गया है। तब मरते-मरते बची थी सत्या। ओस्टोपोरोसिस की वजह से हड्डियां भी खुरने लगीं थीं। एक बार घर के कपड़े सुखाते समय तार से उलझ कर जो गिरी तो फिर नहीं उठ सकी। कमर में एसी चोट लगी कि नीचे का हिस्सा मारा गया और बिना सहारे के उठना-बैठना कठिन हो गया।
बिजली चली गयी थी। सत्या परेशान हो जायेगी, यह सोच अलमारी में से हाथ का पंखा निकाल उसे डुलाने लगे और वह चुपचाप लेटी उन्हें निहारती रही। विश्वास से परे हो गया है बिहारी बाबू का आचरण। क्या यह वही इन्सान है जिसने उसकी पूरी जवानी कोल्हू में पिसते बैल सी स्वाह होती देखी पर कभी सांत्वना के दो शब्द नहीं बोल सका, उसके रिसते घावों पर प्रेम का मल्हम न लगा सका और उसके टूटते मन को सहारे की बैसाखियां न दे सका। पर अब रात-दिन उसी की चिन्ता है उसे, उसी के नाम की पुकार है हर पल। यह अवस्था, उस पर उसके अर्थहीन जीवन का बोझ उठाना, कितना दुरूह है सब। काश! वह इस प्रकार अपंगता की स्थिति में न होती। तभी हिलता पंखा सत्या के चेहरे से टकराया। “ओफ़्फ़ो, नाक तोड़ कर रख दी मेरी। अब जा कर लेट जाओ। बहुत हो गया पंखा डुलाना।” सचेत हो बिहारी बाबू उठ खड़े हुए। तभी बिजली आ गयी। दोपहर के तीन बज रहे थे। बाहर की चौंध आँखों में चुभने लगी तो पर्दे खींच, अंधेरा कर, कूलर चला कर लेट गये वह।
यह नींद भी कैसी अदभुत होती है। पूरी नींद ले लेने पर तन-मन दोनों ही फूल से हल्के हो जाते हैं और हर प्रकार की दुविधा, चिंता से कुछ देर को मुक्ति मिल जाती है। अभी कुछ ही देर आँख लगी थी कि सत्या की आवाज़ से हड़बड़ा कर उठ बैठे। वह बैठना चाहती थी। आधी नींद में बिहारी बाबू एकाएक झल्ला उठे।
“कुछ देर मुझे भी चैन से बैठने दोगी या सारा दिन यूँ ही कांय-कांय करती रहोगी। मैं भी इन्सान हूँ। मुझे भी आराम चाहिये।”
“अरे तो फिर नींद की गोलियां दे कर सुला क्यों नहीं देते इस धरती के बोझ को हमेशा के लिये।”
“अब चुप भी करो, बेकार की बातों से दिमाग मत चाटा करो”, कहते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ गये बिहारी बाबू। माया कब से दरवाज़ा खटखटा रही थी। अंदर आते ही वह समझ गयी कि माहौल गर्म है। बोली, “लाइये बाबू जी, मैं देखती हूँ इन्हे।" बिहारी बाबू की सहायता से उसे बिस्तर पर बिठा वह चाय बनाने चली गयी। जब तक उन दोनो का चाय-नाश्ता समाप्त हुआ, माया काम निपटा कर लौट गयी। सत्या को एक बार फिर लिटा बिहारी बाबू दरवाज़े के सामने कुर्सी खींच कर बैठ गये।
मन बोझिल हो रहा था और नसें टस-टस कर रहीं थीं। आज क्या हो गया था उन्हें जो बेबस पत्नी पर बरस पड़े। आखिर दोष ही क्या था उसका? दोष तो उनका अपना है जो घोड़े बेच कर सोते रहे। दोष तो हमेशा ही उनका ही रहा है।
शाम गहराने लगी थी। धीरे-धीरे दूर-पास की बत्तियां जलने लगीं तो सत्या का ध्यान आया। उठ कर बिजली जलाई तो देखा वह गहरी नींद में थी। जाने क्यों उसे इस प्रकार निश्चल पड़ा देख सिहर उठे वह। सत्या…उसके सिवा उनका है ही कौन इस संसार में। उसकी मौजूदगी का एहसास हर पल घर को क्रियाशील रखता है और एक गति से चलायमान रहते हैं सुबह-शाम, रात-दिन्। सत्या का सान्निध्य ही तो सार्थक करता है घर की परिभाषा को। अन्यथा आस-पास का नि:शब्द ठहराव तो उनके जीवन को घोर एकाकीपन से भर पूर्णत: समाप्त कर देगा और जीते जी मर जायेंगे वह सत्या के बिना।
क्रमश:………
1 comment:
आश्चर्य है कि आप हिन्दी में नहीं लिख रहे । या लिख रहे हैं और मैंने देखा नहीं । इस कहानी पर टिप्पणी के लिए शब्द नहीं हैं । और मेरा कुछ कहना ऐसा ही होगा जैसे कोई तीसरी श्रेणी की छात्रा अपनी ध्यापिका के लेखन की सराहना करे ।
घुघूती बासूती
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