Sunday, September 23, 2007

ॠण-ग्रस्त: भाग 1



वह माँ ही थी जिसे सुगंधा जब जी चाहे नि:संकोच अपने पास बुला लेती थी, कभी अपने अकेलेपन के कारण तो कभी नन्हीं सी बच्ची की देखरेख के लिये। तीन वर्ष पूर्व जब पति अविनाश साल भर के लिये अमेरिका चले गये थे और सुगंधा की सासु-माँ को भी किसी कारणवश अपने मँझले बेटे के पास जाना पड़ा था, तब तत्काल सुगंधा ने माँ को बुला भेजा था। पूरे छः महीने रही थी माँ उसके पास।

कैसा स्नेहिल और दीप्तिमय व्यक्तित्व था माँ का। कुछ ही दिनों में कैसी घुल-मिल गयी थीं वह सबसे। सुगंधा डाक्टर थी। दिन भर की थकी-माँदी जब घर लौटती तो माँ को फाटक के पास ही खड़ा पाती। उसे लगता, वह उसकी माँ नहीं, एक शीतल, स्फ़ुर्तिदायक मेघखंड है जो उसके थके हुए तन और मन को अपार शांति और तृप्ति से भर देता है। नन्हीं शिखा की देखरेख, सुगंधा की घर-गृहस्थी की संभाल, सभी कुछ माँ ही करती थीं। घर का छोटा-मोटा सामान भी वह स्वयं ही पास वाली दुकानों से ख़रीद लाती थीं। छ: मास देखते ही देखते व्यतीत हो गये थे। अविनाश के अमेरिका से लौट आने के कुछ दिन बाद ही माँ वापिस दिल्ली चली गयी थीं।

ऐसा नहीं था कि उनके और कोई संतान नहीं थी। बड़ी बेटी मेघा अपने परिवार सहित बनारस में रहती थी। दोनों बेटों में से छोटा बेटा अनिल मुंबई में इंजीनियर था और बड़ा बेटा सुनील दिल्ली में वकालत करता था। माँ उसी के पास रहती थीं। पति का स्वर्गवास तो वर्षों पूर्व ही हो गया था। अब तो बस बच्चों का मुँह देख कर ही जीती थीं।

पिछले वर्ष भी तो वह सुगंधा के पास लखनऊ गई थीं। कैसे साधिकार बुला भेजा था सुगंधा ने उन्हें –
“माँ, अविनाश शायद दो सप्ताह के लिये जापान जायेंगे, शिखा और मेरा मन आपके बिना नहीं लगता, बस चिट्ठी मिलते ही चली आना”।

माँ चली आयीं थी फिर, पर कैसा आना था वह? अविनाश जापान तो नहीं जा सके, हाँ, माँ के पहुंचने के तीसरे दिन ही एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। हाहाकार मच गया था घर भर में। हृदय के मानों टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। बसंती रंग बिखर कर आग के अंगारे बन गये थे। सुगंधा तो मानों जड़ हो गयी थी। उसके सामने तो रेगिस्तान से तपते जीवन का नितान्त अकेला लंबा सफ़र शेष रह गया था। फिर माँ वापिस नहीं लौटी थीं। लौटतीं भी कैसे, किसके सहारे छोड़ आती सुगंधा को।

जाने वाले को क्या कभी भुलाया जा सकता है? यादें तो मन के किसी अछूते कोने में हर पल दीपशिखा सी प्रज्वलित रहती हैं। किंतु जीवन कल्पना और यादों के सहारे नहीं कटा करता। जीने के लिये यथार्थ के कटु सत्य को स्वीकरना ही पड़ता है। सुगंधा ने भी अपनी नियति से समझौता कर लिया था। भरा-पूरा ससुराल था सुगंधा का किंतु पति की मृत्यु के उपरांत प्राय: सभी ने उससे नाता तोड़ लिया था।

घर के काम तो माँ संभाल लेती थीं किंतु कुछ काम ऐसे थे जो उसे स्वयं ही करने थे। अविनाश के प्राविडेंट फ़ंड और जायदाद संबधी व्यवस्थाओं के लिये उसे अकेले ही कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते। इसी तरह के और कई कार्यों में बहुत व्यस्त हो गयी सुगंधा। न उसे घर का ध्यान रहा, न शिखा का और न माँ का।

अपने एकांतिक क्षणों में वह हर पल यह अनुभव करती कि इतने बड़े संसार में केवल माँ ही उसकी अपनी है जिसके सहारे उसे जीवन काटना है। वास्तव में यह माँ की अपार ममता ही थी जो उसकी कार्यक्षमता को बढ़ाती थी, उसे संरक्षण प्रदान करती थी। सघन वट-वृक्ष की घनेरी छाया सा माँ का प्यार ही उसे टूटने से, बिखरने से बचाये हुए था।

किंतु आज वही माँ नहीं रहीं। उनका निर्जीव शरीर सफ़ेद चादर से ढका धरती पर पड़ा था। उनके दोनो निर्जीव हाथ छाती पर टिके हुए थे। वे हाथ जो अब कभी सुगंधा का सिर सहलाने को नहीं उठेंगे, वे बंद आँखें जो अब कभी उसके क्लांत तन-मन को संतोष प्रदान नहीं कर पायेंगी।

माँ चली गयी…माँ क्यों चली गयी? उन्होनें तो उसका साथ निभाने का वायदा किया था। माँ के पैरों के पास बैठी वह विचारों के तानों बानों में उलझी हुई थी। सहसा बिलख-बिलख कर रो पड़ी। तभी पास खड़े डा. गरेवाल ने उसके कंधे थपथपाते हुए कहा –

“Sugandha, you are a brave girl. You should not lose heart and face the tragedy boldly”

वह चुपचाप आँखें पोंछने लगी। तभी उसके सहकर्मी त्रिपाठी जी ने बताया कि उसने उसके सभी संबंधियों को तार डाल दिये हैं। धीरे-धीरे घर जान-पहचान वालों से भरता जा रहा था। पर सबसे बेख़बर एक बार फिर वह अपने अतीत में खो गयी।

"अहस्ताक्षरित- संधिपत्र", इतिहास शोध-संस्थान, नयी दिल्ली, 1994, प. 148-155

2 comments:

Udan Tashtari said...

माँ चली गयी…माँ क्यों चली गयी?

यही तो उत्तर मैं भी तलाश रहा हूँ.

बहुत हृदय स्पर्शी कथा..आगे इन्तजार है.

Chandra S. Bhatnagar said...

धन्यवाद समीर जी। आगे की कहानी पोस्ट कर दी है। आशा है,पसंद आयेगी।