“बीबी जी, गयी रात राघवन ने अपने पड़ोस की ही नाबालिग लड़की से मुँह काला कर लिया। हर ओर उसकी थू-थू हो रही है।” रंगा ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा तो अकस्मात मुझे वह दिन याद आ गया जब समाज की दूषित परम्पराओं के वशीभूत हो चादर डालने की प्रथा के अनुसार पिछले साल ही हमारे माली के बीस वर्षीय बेटे राघवन का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे पंद्रह वर्ष बड़ी विधवा भाभी से कर दिया गया जिसे वह अब तक माँ समान मानता आया था। फलस्वरूप, जो संबंध पति-पत्नी का होता है वह उनके बीच कभी स्थापित ही नहीं हो पाया। अन्तत: गयी रात अपने किन्हीं दुर्बल क्षणों में अत्रिप्त कामनाओं के वशीभूत हो वह अपनी मर्यादा भूल बैठा। राघवन की मन:स्थिति से भलीभान्ति परिचित होते हुए भी आज उसी के सगे-संबंधी और गली-मुहल्ले के लोग उसे कड़ी सज़ा देने के लिये हर ओर मधुमक्खियों की तरह बिखर गये हैं। किंतु दोष क्या केवल राघवन का है?
"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल, प. 56
2 comments:
अच्छा काम कर रहे हैं आप अपनी माता जी की रचना लाके. जारी रखें.
Again a very true question.. Insaan jo bhi karta hai uske liye paristhitiyan hi jyada jimmedaar hoti hain hamesha.. par hum hamesha insaan se nafarat karte haiin ..uski wajah ko nahi dekhte..jaroorrat hai har baat pe dubara sochne ki aisa kyun hua jaanane ki...
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