माँ अपनी डेढ़ वर्ष की बच्ची को 'प्यासे कौए' की कहानी सुना रही थी जो अपने सिर को पीछे की ओर झुकाये एकटक माँ को निहारती पैर फैलाए सामने बैठी थी और माँ द्वारा बार बार सुनाई जाने वाली कहानी के आगे के अंश अपनी तुतली भाषा में बोल रही थी।
'एक कौआ', माँ ने कहा।
'पासा', (प्यासा) बच्ची।
'घड़े में पानी', माँ।
'तोड़ा', (थोड़ा) बच्ची।
'कौए ने डाले', माँ।
'पतल', (पत्थर), बच्ची।
'पानी आया', माँ।
'ऊपल', (ऊपर) बच्ची।
'कौए ने पिया', माँ।
'पानी', बच्ची।
'कहानी हो गयी खत्म', माँ
इस बार माँ की हथेलियाँ कहानी की समाप्ति की बात करते हुए ऊपर की ओर खुल गयीं थीं, पर बच्ची एकाएक रोने लगी।
'नो, नो कानी नो कतम, कानी ओल, नो कतम'
(नहीं, नहीं कहानी खत्म नहीं, कहानी और)
माँ फिर से कहानी सुनाने लगी।
'एक कौआ'
'पासा', बच्ची ने कहा और एक बार फिर कहानी के अंश दोहराते थक कर सो गयी। उसे सोया देख माँ सोचने लगी कि जीवन और कहानी का तो चोली-दामन का साथ है; जब तक जीवन है, तब तक कहानी है।
"समय का दर्पण', सुकीर्ति प्रकाशन, प. 29-30
2 comments:
सुंदर अभिव्यक्ति ..बधाई
धन्यवाद रीतेश जी।
Post a Comment