"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, प. 14
Wednesday, August 29, 2007
प्राचीन
"समय का दर्पण", सुकीर्ति प्रकाशन, प. 14
Saturday, August 25, 2007
मैं और मेरा प्रियतम
गहरा बिखरा झुटपुट हो।
वही सलोनी नदिया-झरना,
झिलमिल जल का सम्पुट हो।
नीरव का स्पन्दन हो केवल,
छितराता सा बादल हो।
तरूवर की छाया सा फैला,
सहज निशा का काजल हो।
दूर दिशा से कर्ण उतरती,
बंसी की मीठी धुन हो।
प्राणों में अविरल अनुनादित,
प्रीत भरा मधु गुंजन हो।
उसी अलौकिक निर्जन स्थल पर,
इठलाता सा यह मन हो।
दूर जगत की दुविधा से,
मैं और मेरा प्रियतम हो।
Sunday, August 12, 2007
जीवन और कहानी
माँ अपनी डेढ़ वर्ष की बच्ची को 'प्यासे कौए' की कहानी सुना रही थी जो अपने सिर को पीछे की ओर झुकाये एकटक माँ को निहारती पैर फैलाए सामने बैठी थी और माँ द्वारा बार बार सुनाई जाने वाली कहानी के आगे के अंश अपनी तुतली भाषा में बोल रही थी।
'एक कौआ', माँ ने कहा।
'पासा', (प्यासा) बच्ची।
'घड़े में पानी', माँ।
'तोड़ा', (थोड़ा) बच्ची।
'कौए ने डाले', माँ।
'पतल', (पत्थर), बच्ची।
'पानी आया', माँ।
'ऊपल', (ऊपर) बच्ची।
'कौए ने पिया', माँ।
'पानी', बच्ची।
'कहानी हो गयी खत्म', माँ
इस बार माँ की हथेलियाँ कहानी की समाप्ति की बात करते हुए ऊपर की ओर खुल गयीं थीं, पर बच्ची एकाएक रोने लगी।
'नो, नो कानी नो कतम, कानी ओल, नो कतम'
(नहीं, नहीं कहानी खत्म नहीं, कहानी और)
माँ फिर से कहानी सुनाने लगी।
'एक कौआ'
'पासा', बच्ची ने कहा और एक बार फिर कहानी के अंश दोहराते थक कर सो गयी। उसे सोया देख माँ सोचने लगी कि जीवन और कहानी का तो चोली-दामन का साथ है; जब तक जीवन है, तब तक कहानी है।
"समय का दर्पण', सुकीर्ति प्रकाशन, प. 29-30
Saturday, August 4, 2007
त्रासदी
Wednesday, August 1, 2007
प्रदूषण
वह तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ा चला जा रहा था कि पुल पार करते समय उसकी नज़र पटरियों के बीच रखे प्लासटिक-नुमा डिब्बे पर पड़ी। ‘कहीं इसमें बम तो नहीं’, आतंक-वादियों की सक्रिय होती गतिविधियों पर ध्यान जाते ही उसने सोचा और पलक झपकते ही डिब्बे को नदी में फेंक दिया। इसी बीच धड़धड़ाती हुई गाड़ी उसके निकट आ गयी। तब अपने बचाव का कोई दूसरा रास्ता न देख कर वह रेल की पटरी पकड़ नीचे लटक गया। गाड़ी के निकल जाने के बाद उसने ऊपर उठने की भरसक चेष्टा की किंतु असफ़ल रहा।