चाँदनी रात-रानी सी खिलती गयी,
चंचल कस्तूरी-मृग सी मचलती गयी।
पत्ते-पत्ते पे हिम सी फिसलती गयी,
रात भर बन के चंदन महकती रही,
एक स्वप्निल झरोखे सी जगती रही।
चंद्रबाला धवल भावना की परी,
जाहनवी सी सरल कामना बन झरी।
बाँध लेती मधुर रेशमी वल्लरी,
झूमती हर दिशा में दमकती रही,
दीप्त मुक्तामणी सी विहँसती रही।
श्वेत मोदित लहर गुनगुनाती हुई,
ताल दर्पण में वह झिलमिलाती हुई।
कांत उपवन बनी महमहाती हुई,
रात में झीना आँचल फैलाती रही,
गीत मीठे सुरों के सुनाती रही।
नयन कोरों को अमृत से भर जाती थी,
देखते मेघ शावक को डर जाती थी।
फिर जो चुपके से मेरी सखी बन गयी,
प्रात: होने से पहले दगा दे गयी,
कौतुहल मेरा छल कर सज़ा दे गयी।
चाँदनी रात-रानी सी खिलती गयी,
चंचल कस्तूरी-मृग सी मचलती गयी।
पत्ते-पत्ते पे हिम सी फिसलती गयी,
रात भर बन के चंदन महकती रही,
एक स्वप्निल झरोखे सी जगती रही।
चंचल कस्तूरी-मृग सी मचलती गयी।
पत्ते-पत्ते पे हिम सी फिसलती गयी,
रात भर बन के चंदन महकती रही,
एक स्वप्निल झरोखे सी जगती रही।
"चेतना के स्वर", प.63
6 comments:
जितना सुन्दर माता जी ने लिखा है, उसी सुन्दरता से आपने गाया है. बहुत बढ़िया. आपको बधाई और माता जी को नमन.
सराहना के लिये धन्यवाद लाल साहब। आते रहिये।
वाह क्या आवाज पाई है। आपकी माता जी की कविता आपकी आवाज में और खिल उठी ।
मनीश जी, स्रोत (माँ) और माधय्म (मैं)के प्रति आपके प्रोत्साहन और सराहना के लिये धन्यवाद।
मनमोहक पंक्तियां व गायन्……
पारुल जी, बहुत बहुत धन्यवाद। माँ को आप के विचारों से अवगत करवा दूंगा।
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