Saturday, November 3, 2007

दीपावली



रावण-वध कर, खेल खेल में,
रामायण को गा-गा कर।
ढोल-मंजीरे बजा बजा कर,
मन्दिर-मन्दिर जा जा कर॥

दीपावलियाँ जला-जला कर,
ही मनती दीवाली क्या?
घोर अमावस की यह रैना,
बन जाती उजियाली क्या?

प्रेम-पुष्प सानंद खिलें जब,
भाव-भाव से मिलते हैं।
द्वेष, ईर्ष्या रिक्त हुए मन,
सदभावों में खिलते हैं॥

जहाँ जलें हों दीप स्नेह के,
वहीं बसी खुशहाली है।
त्याग भावना जहाँ प्रवाहित,
वहीं सदा दीवाली है॥

आस-पास उद्वेग रहित हों,
दिशा-दिशा हो शांतमयी।
खिले-खिले हों सबके मुखड़े,
रहे न कोई क्लांतमयी॥

खुशियों भरी छलकती गागर,
सागर भरती प्याली हो।
हर घर हो पावन हरिमंदिर,
बारह मास दीवाली हो॥

बेल तामसी पग-पग बिखरी,
कहीं उलझ मत जाना तुम।
निज विवेक से चिंतन करते,
सब उलझन सुलझाना तुम॥

अकुलिष मन के दीप जहाँ हों,
रात वहीं मतवाली है।
सहज-सरल निर्मल हो जीवन,
वहीं सदा दीवाली है॥

"चेतना के स्वर", प्…29-30

4 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

दीपावली पर अच्‍छी कविता, पर्व की सुभकामनाऐं

Udan Tashtari said...

अच्छी रचना-मगर आजकल पोस्ट बहुत कम हो रही है, क्या वजह है.

Chandra S. Bhatnagar said...

प्रमेन्द्र जी, लाल साहब, धन्यवाद।

लाल साहब, बच्चों को पढ़ाने व कापियाँ जाँचने में व्यस्त हूँ। इस लिये कम पोस्ट हो रही है।

पूर्णिमा वर्मन said...

दीपावली पर बहुत सुंदर कविता लिखी है सुकीर्ति जी ने। शुभकामनाएँ। कभी अनुभूति (www.anubhuti-hindi.org) के लिए भी रचनाएँ भेजें। प्रकाशित कर के खुशी होगी।