Friday, June 1, 2007

अहस्ताक्षरित संधिपत्र




एयर बैग को कंधे से लगाये, लगभग दौड़ता हुआ वह first-class के compartment में चढ़ गया। जनवरी के महीने में भी उसका सारा शरीर पसीने से तर हो रहा था और साँस फूली हुई थी। ओह ! कहीं ट्रेन छूट जाती तो…?

रात्री के ग्यारह बज रहे थे। कुछ पल तक निरीक्षणात्मक द्रष्टी से वह इधर-उधर देखता रहा और खड़े – खड़े ही रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछता रहा। रात्रि का गहन अंधकार हर ओर फैला हुआ था। मात्र गाड़ी की छुक – छुक की ध्वनि ह्रदय की धड़कन का साथ दे रही थी और उसके साथ – साथ जाने कितनी अस्फ़ुट ध्वनियाँ सर्राटे के वेग से मिली – जुली अनचाहे ही सुनाई दे जाती थीं।

तभी वह झुका, बैग से Rider Haggard का “She” निकाल कर सीट पर जा बैठा और पढ़ने लगा। आग के झरने में नहा कर सदाबहार रहने वाली नवयौवना ‘शी’ कुछ क्षणों तक उसकी कल्पना में साकार हो मुस्कुराती रही जो अपने प्रेमी को भी अग्नि – कुंड में नहला कर चिर यौवन प्राप्त अमर पुरुष बना देना चाहती है। ‘यदि ऐसा कहीं संभव हो जाये तो मनुष्य विक्षिप्त हो जाये’, उसका अन्तर्मन उसे कह रहा था – यह दु:खपूर्ण संसार और अमरत्व पाने की ऐसी मोहक भूख…कितना वोरोधाभास है दोनो में।

अब तक पढ़ते – पढ़ते वह थक चुका था किंतु नींद आँखों में लेश – मात्र को भी न थी। जेब से सिगरेट निकाल, देर तक उसके कश खींचता रहा और दूर कहीं विलीन होते उसके धुएं के छल्लों के साथ आँख मिचौनी खेलता रहा।
सहसा उसकी द्रष्टि सामने पड़े सूटकेस पर पड़ी। सुनहरे शब्दों से लिखा ‘नीला दत्त’ क्षणांश को उसे अंदर तक बेध गया। ‘नीला दत्त’, कौन नीला दत्त?

साथ ही सीट पर सोई महिला ने अनजाने ही करवट ली और उसका गदराया सलोना हाथ उसके घुटनों में आ लगा। विस्फ़रित नेत्रों से जाने कब तक वह उसे एकटक निहारता रहा। उसे अपनी आँखों पर सहज विश्वास नहीं हो पा रहा था। हतवाक्य हतबुध्धी – सा वह जाने कब तक यूँ ही बैठा रहा। हठात उसने बैग का मुँह दूसरी तरफ़ कर दिया और उठने को हुआ किंतु उसे लगा कि जैसे उसके पैरों में भारी बेड़ियां डाल दी गयी हैं। चाह कर भी वह उठ नहीं पाया।

उसका एक हाथ अब तक नीला के हाथों में था। लेटे – लेटे ही वह मुस्कुराती आँखों से देख रही थी और उसके बर्फ़ हुए हाथ धीरे – धीरे सहला रही थी। उसकी अधखुली आँखों में एक अछूता सा प्रश्न था। मानो वह पूछ रही हो –


“डू यू एवर रेमेम्बर मी सुनील?”

जाने कब तक वह सकुचाया सा खड़ा रहा। तभी जैसे उसकी चेतना लौटी;
“ओह ! नीला ही तो हो न तुम, पर यहाँ कैसे, कहाँ जा रही हो?”
“बहुत घबरा गये हो मुझे देख कर, अच्छा रुको, मैं तुम्हें चाय पिलाती हूँ।“

चाय का गिलास उसके हाथों में दे कर वह देर तक उसे चाय सिप करते देखती रही। तभी कुछ सोचती हुई सी बोली –
“तुम कुछ पूछ रहे थे क्या?”
हाँ, यही कि आज कल तुम कहाँ हो, क्या करती हो।“

वह कुछ बोली नहीं। माथे पर बिखर आई लटों को पीछे की ओर संभालते हुए मुस्कुराती रही। उसकी आँखें सुनील के उधड़ गये कालर के कोने पर टिकी थीं।

चाय का अन्तिम घूंट भरने तक सुनील कुछ विचलित हो उठा था।
“तुम ने कुछ बताया नहीं नीला, तुम्…”

एक दीर्घ नि:श्वास ले वह उठ खड़ी हुई और सुनील के निकट आ बैठी।
“मेरे बारे में जानने को बहुत इच्छुक हो, क्यों?” फिर कुछ रुक कर “दिल्ली में हूँ, माडलिन्ग करती हूँ। बहुत ही ग्लैमरस लाइफ़ है। नये – नये चेहरे, नयी भाव – भंगिमाएं, नवीन रूप – रेखायें। और फिर इन सब से ऊपर है व्यस्तता। व्यस्तता, जो अतीत की कड़वी, मीठी स्म्रितियों पर अंकुश लगाये रहती है, वह अंकुश जो मुझे पैरों पर खड़ा होना सिखाता है। पर तुम्हें इस से क्या? तुमने तो मुझे हमेशा-हमेशा के लिये अंधेरों के गर्त में समाहित होने के लिये छोड़ दिया था न। बोलो, क्या तुम नहीं चाहते थे कि मैं बरबाद हो जाऊं और तुम सुखपूर्वक जी सको।“ वह अतयंत भावुक हो उठी थी।

“नहीं नीला, ऐसा कुछ भी नहीं था”, वह समझौते के स्वर में बोला। पर वह उठ खड़ी हुई और खिड़की के निकट जा कर खड़ी हो गयी। उठते समय शाल उसके कंधों से नीचे आ गिरा। लाल ड्रेन पाइप पैंट और पीली स्कीवी में वह आज भी उतनी ही मोहक लग रही थी जितनी कि आज से पाँच वर्ष पूर्व्।

मंत्र – मुग्ध सा वह उसकी तरफ़ देखता रहा, बोला कुछ नहीं। कूपे का सहज एकांत उसे सुखद प्रतीत होने लगा। मात्र दो सहयात्री और वातावरण की अपार निस्तब्धता। उत्तेजना उसके ह्रदय पर थपथपाने लगी, किंतु विगत की कड़वाहट में वह सोंधी गमगमाहट दब कर रह गयी।

फिर भी मानस स्म्रितियों के आकाश को बेंध, उस विगत को बांध लेना चाहता था जो उसका अपना था। कितना कुछ देना चाहा था उसने अपनी पत्नी नीला को – ह्रदय का सम्पूर्ण प्यार एवं अटूट विश्वास्। किंतु क्या वह उस प्रेम का अनुदान कर पाई? जीवन में जो कुछ भी था, मात्र औपचारिकता थी, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।

लाइटर निकाल कर सिगरेट सुलगा लिया उस ने और बाहर अंधेरे में कुछ ढूंढने की निरर्थक चेष्टा करने लगा। नीला अब तक सीट पर बैठ चुकी थी और एकटक उसी की ओर देख रही थी।
“तो तुम ने सिगरेट पीनी छोड़ी नहीं। इधर तुम्हारा स्वास्थ्य भी कुछ ठीक नहीं लगता।“

कुछ पलों तक वह सिगरेट के धुयें को दूर कहीं लुप्त होते देखता रहा, विस्म्रित सा। कैसा भ्रमजाल था वह जिस में वह वर्षों तक उलझा रहा। नागमणि का सा अस्तित्व लिये नीला उसे प्रतिपल छ्लती रही और कातर म्रग-छौने सा हर क्षण मर्दित होता रहा था वह्। सहसा जाग्रत होकर वह पूछ बैठा, “राजीव और शेखर कैसे हैं, तुम्हारे पास तो आते होंगे न?” इस अप्रत्याशित प्रश्न से नीला चौंकी, सचेत हो कुछ क्षणों तक सुनील की आँखों में झांकती रही।

“लगता है, तुम अब भी मुझ से नाराज़ हो, तुमने अब तक मुझे क्षमा नहीं किया। सच कहना सुनील, इन बीते वर्षों में क्या कभी मेरी याद नहीं आयी तुम्हें?”

“ऐसा था ही क्या नीला जिसे याद किया जा सके। उपेक्षा, उपहास और अनादर। मैं नहीं समझता इस सब में याद रखने योग्य कुछ है। फिर भी, बरसों तक घुटन, क्षोभ और पीड़ा के अनवरत तपते गरल को पी कर भी मैं कहाँ, किस छोर से अब तक तुमसे जुड़ा हूँ कह नहीं सकता, और क्यों? यह मैं स्वयं नहीं जानता।“

सहसा चौंक कर, “लगता है कोई स्टेशन आ रहा है – कुछ लोगी क्या?”
“नो थैंक्स।“
“कुछ तो”, सुनील के स्वर में कुछ आग्रह था।
“नहीं, रहने दो।“ “हाँ सुनो, तुम्हें क्या भूल गयीं वे रातें जब हम झील के किनारे रेत की नैया पर बैठ कर घंटों चाँदनी का गीत गाया करते थे। कितना सुंदर गाते थे न तुम। विशेष कर वह गीत –

“अंधेरों की चादर उठाकर तो देखो,
सितारों की मोहक मधुर रोशनी है।
धरा से गगन तक सुषमा ही सुषमा
नवल चंद्रमा की धवल चाँदनी है।“


“सच, तो तुम्हें आज भी याद है वह गीत?”
“क्यों नहीं”, मधुर विकम्पित शब्दों में नीला के अधर हौले से खुले।
“और तुम रोती कितना अच्छा थीं न।“
“मैं रोती थी, पर भला क्यों?”
“अच्छा जी ! भूल गयी वह शाम, जब उस बीहड़ घने जंगल में एक पुराने खंडहर के पीछे…तभी वाक्य पूरा होने से पहले ही नीला ने आवेश में आ कर दो तीन धौल सुनील की पीठ पर जमा दिये।
“नटखट कहीं के, शैतान…” हंसते हंसते मानों वह सब कुछ भूल गयी थी, भूलती जा रही थी।

सहसा चैतन्य हो कर, “आई एम सो सौरी सुनील, मुझे ऐसा नहीं करना चहिये था।“ नीला की आँखें स्वप्निल सी हो रही थीं और चेहरा गहन विषाद में डूबता जा रहा था।

“जीवन में अनजाने, अनचाहे ही कभी-कभी कुछ ऐसा घट जाता है जिस की हम कल्पना तक नहीं करते।“
“किंतु वास्तविकता को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता, नीला।“
“नहीं नहीं, ये सब झूठे आक्षेप हैं मुझ पर। जो कुछ भी हुआ, मात्र तुम्हारे भ्रम के कारण, अन्यथा मुझ में कोई कमी नहीं थी।“
“तभी तो तुम्हारे चाहने वालों की भी कभी कमी नहीं रही।“, सुनील के चेहरे पर उपेक्षा के भाव स्पष्ट थे जो नीला से छुपे नहीं रहे।
“ओह शट अप”, फिर थोड़ी शांत होते हुए वह स्वत: बुदबुदाई, “आज बरसों बाद हम मिले हैं, क्या लड़ने-झगड़ने के लिये, एक मित्र की तरह ट्रीट करो मुझे”।

कुछ समय तक दोनो चुप रहे।


“कहो क्या करते हो आजकल, वहीं लखनऊ में हो या कहीं और?”, नीला का स्वर था।
“वहीं हूँ, अपना बिज़नेस है, लाखों का लेन-देन है, किंतु जीवन की वास्तविक शांति और सुख मुझ से कोसों दूर है। लगता है जैसे सब कुछ निरर्थक है…”

सहसा नीला का मुक्त हास्य उसे चौंका गया।


“हंसती हो?”
“ओह ! सुनील, आई कैन नाट बिलीव कि तुम ऐसी बात करोगे। तुम जो मुझे जीवन की सार्थकता समझाते थे। हाऊ स्ट्रेंज्।“ और वह जाने कितनी देर तक यूँ ही हँसती चली गयी और हँसते हँसते उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये।

“बहुत सैन्टीमेंटल हो गयी हो नीला और सैन्सिटिव भी। पहले तो ऐसी न थी।“
“तुम भी तो सुनील्…अच्छा कहो अभी तक शादी क्यों नहीं की?”
“तुम ने कर ली क्या?”
“नहीं, कभी सोचा ही नहीं इस विषय में और फिर विगत वैवाहिक जीवन के वे पाँच वर्ष यदा-कदा haunt तो करते ही हैं न्।“
“मुक्ता की शादी तो हो चुकी होगी अब तक?”
“हाँ हुई तो, उसी अपने राजीव से।“

सहज बैठे सुनील का अस्तित्व मानों इन शब्दों…अपने राजीव… से अन्दर तक खंडित होता चला गया। वह उठ खड़ा हुआ। उसे लगा, वह असंख्य नागों के पाश में जकड़ दिया गया है और उनका वह ज़हरीला दंश धीरे-धीरे उसकी समस्त सत्ता को तिरोहित करता चला जा रहा है। आह ! राजीव और शेखर, ये दो नाम वर्षों तक उसके समस्त पौरुष को आहत करते चले गये हैं; जब तब कल्पना में साकार हो उसकी उपेक्षा करते हैं।

सीमा और मर्यादा के महल को खँडहर होते वह कब तक देख सकता था। कुंठाग्रस्त जीवन कब तक जीता, भ्रष्टा पत्नि के साहचर्य को कब तक स्वीकरता, संबंध विच्छेद ही उसकी नियति थी। इस से पूर्व कि कोइ तीसरा राहु उसके जीवन को ग्रसे, वह नीला से सदा-सदा के लिये विलग हो गया था। नीला ने भी साथ रहने का कोई झूठा प्रदर्शन नहीं किया था। कितने ही सहज रूप से ग्रहस्थी की टूटती-जुड़ती कड़ियाँ हमेशा-हमेशा के लिये समाप्त हो गयीं थीं। यह आश्चर्यजनक विच्छेद सुखद था अथवा दु:खद, इस का निर्णय वह अब तक नहीं कर पाया।

सहेज कर रखे हुए ब्लाउज़ के टूटे बटन, जूड़े की सुई और कभी मेले में खरीदी गयी हाथीदाँत की चूड़ियों के सफ़ेद जोड़े – स्म्रतियों के खुले आकाश में धवल कपोतों के सद्रश आज भी रह-रह कर उस से कुछ सवाल किया करते हैं, जिनका उत्तर संभवत: उसके पास नहीं है।

“अच्छा नीला कहो, क्या तुम्हें कभी अकेलापन नहीं महसूस होता?” नीला के निकट बैठते हुए उसने प्रश्न किया।

बहुत देर तक उंगली में पड़ी प्लेटिनम की अंगूठी को इधर-उधर घुमाती रही। बोली कुछ नहीं। सुचारू रूप से तराशे गये नाखून उसकी सुद्रढ़ता के परिचायक थे; हल्के शेड की नेल-पालिश उस पर बड़ी अच्छी लग रही थी। उसकी लंबी उँगलियॉ अब तक अंगूठी से उलझी हुई थीं।

फिर धीरे से…”कयी-कयी बार बहुत निराश हो जाती हूँ सुनील्। नाम, ग्लैमर, रूप का जादू, सब बहुत फीका-फीका लगने लगता है। अनेकों बार उन सुद्रढ़ हाथों की कामना करती हूँ जो केवल मेरे हों और हर क्षण मुझे सहेज कर मेरा संरक्षण कर सकें। पर नहीं, मैं इसके योग्य कहाँ। आज आभास होता है कि जीवन की वास्तविक प्रसन्नता उन्हीं क्षणों में निहित थी जो क्षण तुम से जुड़े थे, उन वर्षों में थी जो वर्ष हम दोनों के थे। यद्यपि हम उस समय के साथ न्याय नहीं कर सके, उसका सदुपयोग नहीं कर सके। कुछ भी हो, आज वही अतीत मेरा अपना है और तुम सुनील, तुम, तुम्हारे लिये क्या कहूँ।“

“उस सब की ज़िम्मेदार तुम हो नीला तुम, मैं नहीं।“
“कुछ भी कह सकते हो”, बैग में से नन्हा रेशमी रूमाल निकाल कर वह अपनी आँखें पोंछने लगी।
“अरे, यह वही रूमाल है न जो…”
सुनील का वाक्य पूरा होने से पहले ही नीला मुस्कुराई, एसा लगा मानो बादलों भरे आकाश में इन्द्रधनुष चमक उठा हो।
“हाँ, वही जो तुमने मेरी 25वीं वर्षगांठ पर भेंट स्वरूप दिया था – साड़ी के साथ, हल्के पीले रंग की साड़ी, काले बार्डर वाली, याद है न। तुम समझते होगे कि एक दूसरे से विलग हो जाने पर स्म्रतियां फूल-कलियों की तरह हवा के झोंके में समय की प्रताड़ना सहते-सहते इधर-उधर बिखर जाती हैं, हमेशा-हमेशा के लिये समाप्त हो जाने के लिये, पर सुनील, तुम क्या समझोगे। याद हमेशा सजग रहती है, साथ रहती है किसी न किसी रूप में। तुम से विलग हो, तुम्हारे अभाव ने जीवन की विचारधारा को ही बदल दिया। कुछ समय तक तो मैने स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतंत्र पाया। तब शेखर व राजीव मुझ से खुल कर मिलने लगे। एसा आभास होता था, जीवन की वास्तविक खुशी और सुख बस वही है। सुरमयी सांझें और मेरी हर रात स्वप्निल, मादक और झील के झिलमिलाते जल में डूबती-उतरती पनडुब्बी के समान मोहक हो गयी थी। इसी बीच रमन शर्मा से मेरी भेंट हुई। बहुत समय तक हम दोनों के बीच प्रेम नाटक भी चलता रहा। उसने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव भी रखा। किंतु तुम से टूट कर भी मैं, कहीं न कहीं तुमसे जुड़ी हुई थी; उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया मैने और हमेशा के लिये दूर हो गयी। जीवन की एक-रसता से ऊब कर मैं तुम से दूर चली गयी थी। राग-रंग की महफ़िल भी अधिक देर तक साथ न दे सकी। जीवन कि अस्थिरता बेचैन करने लगी। परिणाम यह हुआ कि मैं टूटने लगी – मित्रों से दूर रहने लगी। एक शाम सुनने को मिला कि कार एक्सीडेंट में शेखर वालिया की म्रत्यु हो गयी है।“

“ओह ! तुम्हें तो बहुत कष्ट पहुंचा होगा, यह दु:खद समाचार सुन कर”, सुनील की बात में व्यंग्य का पुट स्पष्ट था। “और हाँ, राजीव तो तुम्हारा फ़ैन था न? मुक्ता के साथ कैसे कर दी उसकी शादी?”

सुनील का प्रश्न सुन नीला कई क्षणों तक चुप रही फिर धीरे से बोली, “तुम क्या विश्वास कर लोगे मेरी बातों पर? ख़ैर, मैं नहीं जानती थी कि वह छ्दमवेशी एक साथ हम दोनो बहनों के साथ प्यार का स्वांग कर रहा है। बात तो तब जा कर खुली, जब एक रात मुक्ता घबराई हुई मेरे पास पहुंची। रोते-रोते उसकी हिचकी बंध गयी थी। जो कुछ भी मुझ से उसने कहा, वह मेरे लिये विष बुझे बाण से कम नहीं था, जिसे सुन कर मैं जड़ हो गयी थी। मुक्ता गर्भवती थी। उसे बचाने का सर्वोत्तम उपाय यह शादी थी। आज वह एक बच्चे की माँ है। किंतु स्वास्थय ठीक नहीं रहता। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखते हुए अक्सर मुझे उसके यहाँ जाना पड़ता है। राजीव और मुक्ता मुझे बहुत मानते हैं।“ इतना कह कर नीला चुप हो गयी। अब तक वह काफ़ी थक चुकी थी। उठ कर बाथरूम तक गयी। लगभग दस मिनट पश्चात जब लौटी तो हाथ-मुँह धो कर तरो-ताज़ा दिखायी दे रही थी। अपने स्थान पर बैठते ही वह पुन: बोली, “ सच सुनील, किसी के भाग्य में क्या लिखा होता है, यह वह स्वयं नहीं जानता और यहीं आ कर मानव अपने आप को बहुत बौना महसूस करने लगता है।“

फिर कुछ सोच कर, “जो भी हो, समय परिवर्तनशील है न, उसके साथ-साथ मानव मन, उसकी प्रतिक्रिया भी तो बदल सकती है, क्या तुम ऐसा नहीं सोचते?”
“क्यों नहीं, ऐसा हो सकता है।“
“तो सुनील, मुझे क्षमा कर दो, उस अतीत को, उन वर्षों को, जो कटुता, दु:ख और क्षोभ के अतिरिक्त तुम्हें कुछ नहीं दे सके। मुझे अपना लो सुनील, मुझे बचा लो।“ भावुकता के वशीभूत हो वह सुनील के कंधे से जा लगी। “सुनील, डीयर सुनील, तुम्हीं मेरी पहली और अन्तिम उपलब्धि हो, अब तुम्हें मुझ से कोई शिकायत नहीं होगी, सच सुनील, मैं वायदा करती हूँ।“

रूंधे गले से जाने कब तक वह क्या कुछ बोलती रही और वह अनजाने ही उसका सिर सहलाता रहा।

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं, माई डीयर नीलू, सच ही तुम बहुत बदल गयी हो। अब हम एक दूसरे के प्रति पूर्णत: समर्पित हो सकते हैं। कहते-कहते उसने नीला की नाक पकड़ कर हल्के हाथों से उसके गालों को थपक दिया। एक पल को वह चौंकी, शर्मायी और फिर अनायास हँस पड़ी – “ओह! नाटी ब्वाय, तुम्हारी नाक पकड़ने की पुरानी आदत अभी तक गयी नहीं।“

बहुत देर तक दोनों साथ-साथ हंसते रहे किंतु यह हँसी उसके अन्तर्मन से समझौता नहीं कर पा रही थी। रह-रह कर कानों में नीला के स्वर झनझना उठत्ते थे…हाँ…हुई तो…अपने राजीव के साथ्…राजीव्…अपना राजीव्…अपना राजीव्…

सहसा वह उठ खड़ा हुआ, “अरे क्या हुआ?”, नीला चौंकती सी बोली।
“कुछ भी तो नहीं”, वह स्वयं को संभालता सा बोला।
“ओह! मैं तो घबरा ही रही थी, अच्छा सुनो, अब दिल्ली पहुँच कर मेरे पास ही रूकना, फिर चाहोगे तो साथ-साथ लखनऊ चलेंगे। क्यों ठीक है न?”
“हाँ, हाँ एसा ही करेंगे”, फिर खिड़की से बाहर झाँकते हुए बोला – “लगता है, मुरादाबाद आ गया। कुछ खाने को ले आऊँ। बड़े ज़ोरों की भूख लग रही है, तुम्हें भी तो लगी होगी न्। अच्छा देखो, घबराना नहीं, मैं अभी आया”, कहते-कहते वह झटक से नीचे उतर गया। माथा फटा जा रहा था। डिब्बे से कुछ ही दूरी के फ़ासले पर एक खंबे की ओट ले कर वह खड़ा हो गया। नीला डिब्बे के बाहर मुँह निकाल कर उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। वही पाँच वर्ष पूर्व वाला सलोना चेहरा, वही हंसी और वैसा ही मोहक निमंत्रण्…पर किसे…किसे…और किसे……?”

गाड़ी ने सीटी दे दी, वह यंत्रवत वहीं खड़ा रहा, द्रष्टि नीला पर ही टिकी रही। वह बहुत बेचैन दिख रही थी। चंचल आँखें दूर-दूर तक उसी को ढूँढ रही थीं। तभी एक शब्द उसके कानों से टकराया……सु……नी……ल

चाह कर भी वह उत्तर न दे सका। गाड़ी धीरे-धीरे सरकते हुए नज़रों से ओझल हो गयी। वह वहीं खंबे की ओट लेकर सिगरेट के लंबे-लंबे कश खींचता रहा, धुएं के बनते-बिगड़ते छल्लों को गिनता रहा जो एक के बाद एक बनते चले जाते हैं, अतीत और वर्तमान के उन संधिपत्रों की तरह, जिन पर वह हस्ताक्षर नहीं कर पाया।
अहस्ताक्षरित संधिपत्र (Short Stories), इतिहास शोध-संस्थान, नयी दिल्ली, 1994, प. 156-165
भाषा विभाग, पंजाब, द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता से प्रकाशित

2 comments:

Gee said...

कहा हे किसी ने " हाथ छूटे तो रिश्ते नही तोडा करते " पर क्या विश्वास्घात को भुला पाना इतना आसान है,क्या भरोसा कल के क्न्काल आज फिर ना निकले।
बहुत ही भावपूर्न कहानी हे,अन्तर्मन को छू गयी और झिन्जकोर गयी सेन्सिबिलितिस को

Monika (Manya) said...

सच इतना आसान नहीं टूटे रिश्तों क जुड़ना.. भले ही सब बदल जाये,, पर अतीत के साये पीछा नहीं छोड़ते...डंसते है हर पल.. प्रेम का सागर भी उड़ेल दिया जाये तो... भी टूटा हुआ विश्वास नहीं जुड़ता पूरी तरह... पुरुष के लिये तो और भी मुश्किल है क्षमा करना ... स्त्री भूल भी जाये सारे दोष पुरूष नहीं भूल पाता.. कडवाहट को...मैं ये बुराई नहीं कर रही किसी की.. बस एक ख्याल है..
यहां सुनील ने जो किया भले ही एक बार कठोर निर्णय लगता है.. पर सही किया उसने.. वह नीला के धोखे को कुछ पल को भुला सकता था.. पर शाय्द उम्र भर को नहीं.. और उनका फ़िर से मिलना शायद एक नई कटुता को जन्म देता.. सुनील ने शायद यही सोच्कर.. नीला को जाने दिया अकेले..प्यार बहुत अजीब रिश्ता है.. इसके अपने मानदंड है.. अपने तर्क.. possessiveness एक विशिष्ट गुण है प्यार का..स्वत्त्व भाव.. बहुत कठोर होता है..