Tuesday, May 29, 2007

मेरी बच्ची


मैने

प्रथम बार

जब स्वयं में

तुम्हारे होने के संकेत पाये,

तो लगा

मैं आकाश हो गयी हूँ:

जहाँ

सपनों की असंख्य कुन्द - कलियाँ

चटकने लगी हैं

सीपी के मोती सी

किसी अजन्मे पाहुन की प्रतिक्षा में।


मन ही मन

नन्ही - नन्ही कथा - कहानियों को गुनती

परी हो गयी हूँ मैं

और तुम्हारा स्पन्दन वसन्ती झोंके सा

पुलकित करने लगा है।


अवधि पूरी होते ही

तुम्हारी मीठी छुअन से

त्रिप्त हो गया मेरे ह्र्दय का अपूरित संसार्।


किंतु यह परिवेश, यह समाज

तुम्हारे अस्तित्व को उपेक्षित मान

नकारने की चेष्टा में है।


पर

मैं प्रसन्न हूँ।

मान, अपमान और रूढ़ीगत संस्कारों से अछूती,

तुम्हारी किलकारियों की गूँज

अपने हर ओर महसूस करती,

केवल एक शब्द

"माँ"

होकर रह गयी हूँ।

और अब

तुम्हारी पहचान को सार्थक करना ही

इस शब्द की गरिमा है,

मेरी बच्ची !


चेतना के स्वर, प्. 26-27

1 comment:

Monika (Manya) said...

Bahut hee sundar kawitaa hai,, maatritwa ke bhaawon se sarobaar.. sach hai ye bhaaw ek maa hi kah sakti hai. apni bachhi ke liye..ek beti ko janam dene ki khushi aur saath hi uske saath ke dard ka ehsaas.. ye Maa hi janati hai...

Garbh mein beti hone ke upar maine bhi ek kawita likhi hai.. "maa!maa bahut dard hota hai maa" waqt ho to jaroor dekhiyega..