जूठे बर्तन साफ़ करती वह,
दूध के बर्तन की चिकनाई चेहरे पर मलती है।
कपड़ों के मैले बचे सर्फ़ में पैर डाल,
उन्हें रगड़ती है, धोती है।
झाड़ू लगाते समय,
आईने में स्वयं को निहारती है।
चुपके से,
मुँह पर क्रीम या पाउडर लगा
मन्द, मन्द मुस्कुराती है,
तो कभी
इन्द्रधनुषी काँच की चूड़ियों को
अकारण ही बार बार पोंछ्ती, सहलाती
उदास हो जाती है।
*
मैं,
सब देखती हूँ,
पर कुछ कह नहीं पाती
क्योंकि वह केवल शरीर नहीं,
अपेक्षाओं और अकांक्षाओं से भरा
कोमल मन है
जो,
निर्धनता की तपती रेत पर
म्रृगत्रष्णा सा भ्रमित हुआ
कुछ पल (उधार के ही सही)
जीना तो चाहता है।
वह केवल एक लड़की नहीं,
कमसिन उम्र के पड़ाव की
मनः स्थिति है।
चेतना के स्वर, प. 14
Sunday, March 25, 2007
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3 comments:
आपकी माँ की कवितायें अच्छी हैं।
Simple great.. ye bhaaw ek Mature mann hi samjh sakta hai.. jisne kai padaaw dekhe ho.. bahut sajeev rachna hai...
Nishabd
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