वर्षों पूर्व
रूपकँवर सती हो गयी,
और अब कुट्टूबाई।
सती होने के बाद
धर्मान्ध कट्टरपन्थियों के बीच
वे देवी समान पूजी जाने लगीं।
पल भर में ही
उनके समूचे अस्तित्व को
राख का ढेर बना
पतिव्रता के नाम पर
उनकी भस्म का अभिनन्दन किया जाने लगा।
क्या पुरुष भी
पत्नीव्रत के नाम पर
इसी तरह अग्नी का वरण करते हैं?
नहीं न,
फ़िर नारी पर ही यह अत्याचार क्यों?
घोर अमानविय है यह सब्।
आज के इस बदलते दौर में
नारी को
बदलनी होगी अपनी सोच
और स्वीकारना होगा यह सच
कि
यदि उसमें जीवित जल जाने की क्षमता है
तो क्या उसमें समाज के झूठे आडम्बरों का
खँडन करने की शक्ति नहीं?
जीवित रह कर
वर्षों तक
जीवन की अनेकानेक विषमताओं को झेलना
हर पल, हर क्षण मानसिक यातनाओं को भोगना
और हर मोड़ पर
घात लगाये सफ़ेद्पोष भेड़ियों से
अपने सतीत्व की रक्षा करना
जीवित जल जाने के कष्ट से निसन्देह कम नहीं है।
काष!
सती होने की अपेक्षा
वह आगत के प्रश्ठों पर
एक और मदर टेरेसा बन चमकती,
बैसाखियों के सहारे चलने वालों के लिये
फ़िर किसी फ़्लोरेंस नाइटिन्गेल का जन्म होता,
शौर्य की गाथा को दोहराने
एक बार फ़िर
झाँसी की रानी बन
धरती पर अवतरित होती।
तभी सार्थक था उसका जीवन
और वँदनीय भी।
राख हुआ जीवन तो
किसी भी क्षण
हवा के तीव्र झोंके के साथ
दूर-दूर तक बिखर जायेगा
जब-तब
जाने किस-किस के पैरों तले
रौंदे जाने के लिये।
चेतना के स्वर, प. 6-7
Thursday, March 15, 2007
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1 comment:
शेखरजी,
आपकी माताज़ी की लेखनी कितनी प्रतिशील है ये उनके लेख में झलकता है .जो करूणा और आक्रोश उनकी कविता में है ,ये उनके करूनामय नारी रूप को उभIरती है ,बहुत गहराई है उनकी लेखनी में. रूप कंवर का क़िस्सा कुछ साल पुराना है पर कविता कही भी समय बंधित नही लगती.
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