हादसे यूँ ही नहीं हुआ करते,
उनका भी कोई आधार होता है।
कहीं सैकड़ों कंटीले कैक्टस मुँह उठाये खड़े रहते हैं
तो कहीं,
दीमक खाये पेड़ों के कोटरों में छिपे
जीभ लपलपाते सर्प
अपने शिकार पर झपटते हैं।
झूठ, आलस्य, स्वार्थ और बेईमानी की कोंपलें
भी निरंतर फूटती रहती हैं
और
फलते फूलते हैं अनेकों विष-फल
हीन विचारधाराओं के गर्भ से।
कच्ची नींव पर टिकी दीवारों से
चिपके रहते हैं अनेकों मकड़ी-जाले
और गहरा घना सन्नाटा।
हादसे,
आचानक नहीं हुआ करते,
ये तो अनैतिकता की कोख में पलते-बढ़ते हैं:
धीरे-धीरे।
ये किसि जाति, वर्ग अथवा व्यक्ति विशेष का पर्याय नहीं
बल्कि एक भ्रष्ट हुइ मानसिकता का दुष्परिणाम हैं -
जो समय समय पर सामने आते हैं,
बम विस्फ़ोट के रूप में
या फ़िर
आग में झुलसी किसी बेबसी के
करुण क्रन्दन के रूप में।
हादसा
प्रतिरूप है
ज़ँग लगी एक ऐसी विचारधारा का
जो केवल तन-मन को ही विकलाँग नहीं करता
अपितु सारे समाज का विघटन करता है।
चेतना के स्वर, प. 8-9
Thursday, March 15, 2007
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1 comment:
हादसे यूँ ही नहीं हुआ करते,
उनका भी कोई आधार होता है।
बहुत कुछ नही कह कर भी बहुत कुछ समझा गयी हैं वो इन कुछ पंक्तियों में.....
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