Sunday, March 23, 2008

कर्तव्य बोध



बाहर;
बौराए मौसम का डर है।
शायद इसीलिये फागुनी फूल
झाँक रहा है मेरी खिड़की से।

किंतु,
कमरे के घुटन भरे परिवेश में
कब तक सुरक्षित रह पायेगा?

इस से तो अच्छा है
महका ले अपना आस-पास
और जी ले जीवन के कुछ
सार्थक हुए पल;
अपनी क्षमता के अनुरूप।

यही सोच
विषम परिस्थितियों को अनदेखा कर
उसे
कर्तव्य बोध की ओर अग्रसर करते हुए
खिड़की बंद कर दी है मैने।

बाहर,
धुंध भरी शाम उतर आयी है
और अंदर
टीसने लगा है मन
ढेरों पिघलती संवेदनाओं के साथ

"चेतना के स्वर", प. 24

Wednesday, December 19, 2007

शीर्षक रहित



विदेश आने के बाद जब पहली बार माँ को फ़ोन किया था, तब उन्होंने यह कविता लिख कर भेजी थी मुझे। कई वर्ष बीत गये इस बात को। वो पृष्ठ, जिस पर उनकी हाथ से लिखी हुई यह कविता है, पीला पड़ने लगा है। जहां से पन्ना फ़ोल्ड किया हुआ रखा था, अब छिजने लगा है। आज अपनी पुरानी डायरी खोली तो नीचे आ गिरा। पन्ने पर दिनांक है पर वर्ष नहीं है। शायद इस बात का प्रतीक है, कि किसी माँ की अपने पुत्र के लिये लिखी गयी पंक्तियां किसी वर्ष विशेष के लिये नहीं, अपितु आजन्म के लिये होती हैं। कविता को कोई शीर्षक भी नहीं दिया उन्होंने। शायद किसी शीर्षक में समा नहीं पाईं उनकी भावनाएं।

एक आवाज़;
कहीं दूर से आती हुई,
स्वच्छंद आकाश के समस्त विस्तार को
अपने में समेटे हुए
शून्य की गहराई से उभरती हुई
एक अकेले सांध्य तारे सी बैरागी,
यहीं कहीं
धरती के सब ओर
एकाएक झनझना कर छितर गयी है।

वह दूर की गूंजती आवाज़
अनायास
एक नन्ही सी कोंपल बन
मेरे हृदय की कगार पर
रोपित हो गयी है।

किसी मेरे अपने का
वह धुआं-धुआं सा स्वर
मेरे हर ओर अनेकों प्रश्न बन
बिखर गया है।

बीहड़ में भटकते
उस चातकी स्वर का
भविष्य निर्धारण करना
मेरे बस में नहीं

Saturday, November 24, 2007

नारायणी



स्वीकृति / अस्वीकृति के बीच
केवल
एक 'अ' का नहीं,
अपितु
असमान विचार-धाराओं का,
सोच का,
भावनाओं का गहन अंतर होता है।

इन दोनों के बीच,
पैंडुलम सा झूलता मन
व्यक्तिगत संस्कारों
और धारणाओं के आधार पर ही
निजी फ़ैसले करता है।

आज,
भ्रमित-मानसिकता के कारण
भयमिष्रित ऊहापोह में भटकते हुए
हम
भ्रूण हत्या की बात सोचते हैं
और
भूल जाते हैं
कि
अस्वीकृति की अपेक्षा
संभवत:
हमारी स्वीकृति ही
नारायणी बन
सुख, सौभाग्य की मृदु सुगंध से
हमारा घर-आँगन महकाने वाली हो।

'चेतना के स्वर', प 33

Saturday, November 3, 2007

दीपावली



रावण-वध कर, खेल खेल में,
रामायण को गा-गा कर।
ढोल-मंजीरे बजा बजा कर,
मन्दिर-मन्दिर जा जा कर॥

दीपावलियाँ जला-जला कर,
ही मनती दीवाली क्या?
घोर अमावस की यह रैना,
बन जाती उजियाली क्या?

प्रेम-पुष्प सानंद खिलें जब,
भाव-भाव से मिलते हैं।
द्वेष, ईर्ष्या रिक्त हुए मन,
सदभावों में खिलते हैं॥

जहाँ जलें हों दीप स्नेह के,
वहीं बसी खुशहाली है।
त्याग भावना जहाँ प्रवाहित,
वहीं सदा दीवाली है॥

आस-पास उद्वेग रहित हों,
दिशा-दिशा हो शांतमयी।
खिले-खिले हों सबके मुखड़े,
रहे न कोई क्लांतमयी॥

खुशियों भरी छलकती गागर,
सागर भरती प्याली हो।
हर घर हो पावन हरिमंदिर,
बारह मास दीवाली हो॥

बेल तामसी पग-पग बिखरी,
कहीं उलझ मत जाना तुम।
निज विवेक से चिंतन करते,
सब उलझन सुलझाना तुम॥

अकुलिष मन के दीप जहाँ हों,
रात वहीं मतवाली है।
सहज-सरल निर्मल हो जीवन,
वहीं सदा दीवाली है॥

"चेतना के स्वर", प्…29-30

Saturday, October 13, 2007

चाँदनी




चाँदनी रात-रानी सी खिलती गयी,
चंचल कस्तूरी-मृग सी मचलती गयी।
पत्ते-पत्ते पे हिम सी फिसलती गयी,
रात भर बन के चंदन महकती रही,
एक स्वप्निल झरोखे सी जगती रही।


चंद्रबाला धवल भावना की परी,
जाहनवी सी सरल कामना बन झरी।
बाँध लेती मधुर रेशमी वल्लरी,
झूमती हर दिशा में दमकती रही,
दीप्त मुक्तामणी सी विहँसती रही।


श्वेत मोदित लहर गुनगुनाती हुई,
ताल दर्पण में वह झिलमिलाती हुई।
कांत उपवन बनी महमहाती हुई,
रात में झीना आँचल फैलाती रही,
गीत मीठे सुरों के सुनाती रही।


नयन कोरों को अमृत से भर जाती थी,
देखते मेघ शावक को डर जाती थी।
फिर जो चुपके से मेरी सखी बन गयी,
प्रात: होने से पहले दगा दे गयी,
कौतुहल मेरा छल कर सज़ा दे गयी।


चाँदनी रात-रानी सी खिलती गयी,
चंचल कस्तूरी-मृग सी मचलती गयी।
पत्ते-पत्ते पे हिम सी फिसलती गयी,
रात भर बन के चंदन महकती रही,
एक स्वप्निल झरोखे सी जगती रही।


"चेतना के स्वर", प.63



Monday, September 24, 2007

ॠण-ग्रस्त



Story copyright: Sukirti Bhatnagar

Story source: "अहस्ताक्षरित संधिपत्र": A Compilation of Stories, 1994

भाग 1

भाग 2

भाग 3

ॠण-ग्रस्त: अंतिम भाग



वे नवंबर-दिसंबर के ठिठुरते हुए दिन थे जब मीना रात-रात भर माँ के सरहाने बैठी रहती थी। उन दिनों माँ का चलना-फिरना समाप्त्प्राय हो गया था। वह बिस्तर पर ही मल-मूत्र त्याग देती थीं लेटे-लेटे उनके शरीर पर घाव हो गये थे, जिन्हें मीना बड़े प्रेम से साफ़ करती। हर आधे घंटे में पाऊडर छिड़कती। माँ को नहलाना-धुलाना, गंदगी साफ़ करना कोई आसान काम नहीं था। धन्य थी वह, जिसने अपनों से भी बढ़ कर माँ की सेवा की।

आज रात दो बजे माँ ने प्राण त्याग दिये। तब से सुगंधा उदास, चुपचाप माँ के घुटनों के पास बैठी है। तभी डा. सक्सेना ने तंद्रा भंग की – “डा. सुगंधा, मेरे विचार से अब बहुत देर हो गयी है। शव को अधिक समय घर में नहीं रखना चाहिये। आपके रिश्तेदार तो अब तक पहुंचे नहीं। हमें चाहिये, हम माँ का अंतिम संस्कार कर दें।”

उसने सोचा अब किसी के आने या न आने से क्या फ़र्क पड़ता है। बोझिल कदमों से वह उठ खड़ी हुई और बोली – “चलिये डाक्टर साहब, माँ को ले चलें।”

वही शम्शान घाट जहाँ पिछले वर्ष ही तो अविनाश का संस्कार हुआ था। तब माँ थी, जिसकी छाती से लग कर वह फूट-फूट कर रोई थी। पर आज ऐसा कौन है जो रिसते हुए घावों को सहला सके।

माँ के अंतिम संस्कार से लौटी तो भाई-भाभी, जीजा जी, मेघा और अन्य रिश्तेदार पहुंच चुके थे। सभी उसे देख कर बिलख-बिलख कर रो पड़े। पर उसने किसी से कुछ नहीं कहा, न रोई, न कुछ बोली। जाने कब तक शून्य में आँखें गड़ाये चुपचाप बैठी रही। उसकी अपनी तो बस एक माँ ही थी जो इस समय घर से बहुत दूर, धरती माँ की गोद में शाँत अकेली सोई हुई थी। शेष सब व्यर्थ है, दिखावा मात्र, उसका अन्तर्मन उसे कह रहा था।

प्यास से उसका गला सूख रहा था। उसने मीना को आवाज़ लगाई। शम्शान घाट जाने से पूर्व वह उसे कुछ आवश्यक निर्देश दे कर घर पर ही छोड़ गयी थी। पर अब वह कहीं भी दिखाई नहीं दे रही थी। साथ वाले कमरे में गयी तो गोदरेज की अल्मारी खुली पड़ी थी। उसने झटपट ड्राअर खोली तो सभी पैसे, उसकी सोने की चेन और बालियाँ नादारद थीं, जिन्हें व्यस्तता के कारण वह अल्मारी की ड्राअर में रख कर भूल गयी थी। अब स्थिति उसके सामने स्पष्ट हो चली थी कि मीना ने ही ये सब चीज़ें उठाई होंगी क्योंकि उसके घर की कोई वस्तु तथा उसके रखने का स्थान मीना से छिपा नहीं रह गया था। वह घर के सदस्य के समान ही पिछले चार महीने से उसके घर में रहती रही थी और सुगंधा को उस पर पूरा विश्वास हो गया था।

अब तक कई अन्य लोग भी पीछे-पीछे कमरे में आ गये थे। बड़े भैया ने कहा कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवा देनी चाहिये क्योंकि मीना और उसका पति शहर से बाहर नहीं जा पाये होंगे।

सुगंधा की आँखों के सामने विगत वर्ष के वह सब दिन चरखी की तरह घूमने लगे जब माँ की संतान होने का कर्तव्य उनकी चारों संतानों को किसी न किसी कारण से, किसी न किसी क्षण एक बोझ प्रतीत हुआ। उस समय मीना ने माँ की अथक सेवा शुश्रूशा की। हाँ, पगार ले कर की, पर यही तो उसका कर्तव्य था। आज के स्वार्थी परिवेश में, जहां कोई नर्स अथवा सेवक पैसे ले कर भी, नाक-मुँह चढ़ा कर, केवल नाम-मात्र सेवा कर के चलते बनते हैं, मीना ने बड़ी लगन और नियमित रूप से, बिना माथे पर शिकन डाले, माँ को संभाले रखा। ऐसा तो स्वयं सुगंधा भी नहीं कर पाई थी।

उसने पल भर को भाई की आँखों में झाँका, फिर धीरे से बोली – “जाने दो भैया, जाने दो उसे। जिस लगन, प्रेम और अपनेपन से उसने हमारी माँ की सेवा की है, वह अकथनीय है। उसने जीवन के उस कठिन मोड़ पर, जब मैं नितांत अकेली रह गयी थी, माँ के हारे हुए तन और मेरे दुखी मन को सांत्वना एवं सहारे के अमृत से सींचा। दस-बीस हज़ार तो क्या, वह मेरा सर्वस्व भी ले जाती तो भी मैं आजीवन उसकी ॠणी रहती।”

सुगंधा जानती थी कि मीना का ॠण किसी भी अर्थ-शास्त्र के परे था और उसकी चोरी भले ही हर मानव निर्मित न्यायलय में दंडनीय हो, सुगंधा के ॠण-ग्रस्त हृदय में केवल आभार था, न्याय और दंड की हर दलील, हर दायरे के बाहर।