Saturday, November 24, 2007
नारायणी
स्वीकृति / अस्वीकृति के बीच
केवल
एक 'अ' का नहीं,
अपितु
असमान विचार-धाराओं का,
सोच का,
भावनाओं का गहन अंतर होता है।
इन दोनों के बीच,
पैंडुलम सा झूलता मन
व्यक्तिगत संस्कारों
और धारणाओं के आधार पर ही
निजी फ़ैसले करता है।
आज,
भ्रमित-मानसिकता के कारण
भयमिष्रित ऊहापोह में भटकते हुए
हम
भ्रूण हत्या की बात सोचते हैं
और
भूल जाते हैं
कि
अस्वीकृति की अपेक्षा
संभवत:
हमारी स्वीकृति ही
नारायणी बन
सुख, सौभाग्य की मृदु सुगंध से
हमारा घर-आँगन महकाने वाली हो।
'चेतना के स्वर', प 33
Saturday, November 3, 2007
दीपावली
रावण-वध कर, खेल खेल में,
रामायण को गा-गा कर।
ढोल-मंजीरे बजा बजा कर,
मन्दिर-मन्दिर जा जा कर॥
दीपावलियाँ जला-जला कर,
ही मनती दीवाली क्या?
घोर अमावस की यह रैना,
बन जाती उजियाली क्या?
प्रेम-पुष्प सानंद खिलें जब,
भाव-भाव से मिलते हैं।
द्वेष, ईर्ष्या रिक्त हुए मन,
सदभावों में खिलते हैं॥
जहाँ जलें हों दीप स्नेह के,
वहीं बसी खुशहाली है।
त्याग भावना जहाँ प्रवाहित,
वहीं सदा दीवाली है॥
आस-पास उद्वेग रहित हों,
दिशा-दिशा हो शांतमयी।
खिले-खिले हों सबके मुखड़े,
रहे न कोई क्लांतमयी॥
खुशियों भरी छलकती गागर,
सागर भरती प्याली हो।
हर घर हो पावन हरिमंदिर,
बारह मास दीवाली हो॥
बेल तामसी पग-पग बिखरी,
कहीं उलझ मत जाना तुम।
निज विवेक से चिंतन करते,
सब उलझन सुलझाना तुम॥
अकुलिष मन के दीप जहाँ हों,
रात वहीं मतवाली है।
सहज-सरल निर्मल हो जीवन,
वहीं सदा दीवाली है॥
"चेतना के स्वर", प्…29-30
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