Tuesday, March 27, 2007

अस्त हुआ आज

हम दो भाई हैं। जैसा कि स्वभाविक है, दोनो धीरे-धीरे बड़े हो गये। स्कूल-कालिज-विश्व्विद्यालय…सब पठन-पाठन समाप्त कर, नौकरियाँ ढूँढ कर, घर से दूर, अलग-अलग स्थानों पर कार्यरत हो गये। घर में थे तो माँ और पिता जी के लिये रौनक का कारण थे। हम दोनों के चले जाने पर जिस अकेलेपन का अनुभव उन्होनें किया, यह कविता उसे दर्शाती है।


आज,
एक अजीब सा मौन
हर ओर पसरा है।

दिवारें घुटन भरी
और दिशाएँ निशब्द जान पड़ती हैं।
किताबें, कापियाँ और पेंसिलें,
सब उदास,
खोई-खोई सी हैं।

छत पर, कमरों में, सीढ़ियों पर:
कहीं कोई हलचल नहीं।
जूते, चप्पल सहमे से,
अलमारियों के नीचे कैद हैं।

केवल एक गूँज
सन्नाटे में तैरती रहती है
हर पल, हर क्षण;
ढेरों अर्थ लिये।

अनगिनत प्रश्न इधर उधर
अन्दर बाहर,
दूर सड़क पर,
क ई - क ई मोड़ों पर
बिखरे पड़े हैं;
जिन्हें सहेजना बहुत कठिन है।

एक-एक चीज़ पर अंकित उसकी छाप:
कितनी अमूल्य है,
यह समय जानता है
जो बीत गया।

किन्तु भोला वर्तमान
अतीत को मुठ्ठियों में भर
समेट लेना चाहता है।

क्या वह नहीं जानता:
अस्त हुआ आज
फिर लौट कर नहीं आता

चेतना के स्वर, प्. 38-39

Sunday, March 25, 2007

वह लड़की

जूठे बर्तन साफ़ करती वह,
दूध के बर्तन की चिकनाई चेहरे पर मलती है।

कपड़ों के मैले बचे सर्फ़ में पैर डाल,
उन्हें रगड़ती है, धोती है।

झाड़ू लगाते समय,
आईने में स्वयं को निहारती है।

चुपके से,
मुँह पर क्रीम या पाउडर लगा
मन्द, मन्द मुस्कुराती है,
तो कभी
इन्द्रधनुषी काँच की चूड़ियों को
अकारण ही बार बार पोंछ्ती, सहलाती
उदास हो जाती है।

*

मैं,
सब देखती हूँ,
पर कुछ कह नहीं पाती
क्योंकि वह केवल शरीर नहीं,
अपेक्षाओं और अकांक्षाओं से भरा
कोमल मन है
जो,
निर्धनता की तपती रेत पर
म्रृगत्रष्णा सा भ्रमित हुआ
कुछ पल (उधार के ही सही)
जीना तो चाहता है।

वह केवल एक लड़की नहीं,
कमसिन उम्र के पड़ाव की
मनः स्थिति है।


चेतना के स्वर, प. 14

Thursday, March 15, 2007

हादसे

हादसे यूँ ही नहीं हुआ करते,
उनका भी कोई आधार होता है।

कहीं सैकड़ों कंटीले कैक्टस मुँह उठाये खड़े रहते हैं
तो कहीं,
दीमक खाये पेड़ों के कोटरों में छिपे
जीभ लपलपाते सर्प
अपने शिकार पर झपटते हैं।
झूठ, आलस्य, स्वार्थ और बेईमानी की कोंपलें
भी निरंतर फूटती रहती हैं
और
फलते फूलते हैं अनेकों विष-फल
हीन विचारधाराओं के गर्भ से।

कच्ची नींव पर टिकी दीवारों से
चिपके रहते हैं अनेकों मकड़ी-जाले
और गहरा घना सन्नाटा।

हादसे,
आचानक नहीं हुआ करते,
ये तो अनैतिकता की कोख में पलते-बढ़ते हैं:
धीरे-धीरे।
ये किसि जाति, वर्ग अथवा व्यक्ति विशेष का पर्याय नहीं
बल्कि एक भ्रष्ट हुइ मानसिकता का दुष्परिणाम हैं -
जो समय समय पर सामने आते हैं,
बम विस्फ़ोट के रूप में
या फ़िर
आग में झुलसी किसी बेबसी के
करुण क्रन्दन के रूप में।

हादसा
प्रतिरूप है
ज़ँग लगी एक ऐसी विचारधारा का
जो केवल तन-मन को ही विकलाँग नहीं करता
अपितु सारे समाज का विघटन करता है।


चेतना के स्वर, प. 8-9

सती

वर्षों पूर्व
रूपकँवर सती हो गयी,
और अब कुट्टूबाई।
सती होने के बाद
धर्मान्ध कट्टरपन्थियों के बीच
वे देवी समान पूजी जाने लगीं।
पल भर में ही
उनके समूचे अस्तित्व को
राख का ढेर बना
पतिव्रता के नाम पर
उनकी भस्म का अभिनन्दन किया जाने लगा।

क्या पुरुष भी
पत्नीव्रत के नाम पर
इसी तरह अग्नी का वरण करते हैं?
नहीं न,
फ़िर नारी पर ही यह अत्याचार क्यों?

घोर अमानविय है यह सब्।
आज के इस बदलते दौर में
नारी को
बदलनी होगी अपनी सोच
और स्वीकारना होगा यह सच
कि
यदि उसमें जीवित जल जाने की क्षमता है
तो क्या उसमें समाज के झूठे आडम्बरों का
खँडन करने की शक्ति नहीं?

जीवित रह कर
वर्षों तक
जीवन की अनेकानेक विषमताओं को झेलना
हर पल, हर क्षण मानसिक यातनाओं को भोगना
और हर मोड़ पर
घात लगाये सफ़ेद्पोष भेड़ियों से
अपने सतीत्व की रक्षा करना
जीवित जल जाने के कष्ट से निसन्देह कम नहीं है।

काष!
सती होने की अपेक्षा
वह आगत के प्रश्ठों पर
एक और मदर टेरेसा बन चमकती,
बैसाखियों के सहारे चलने वालों के लिये
फ़िर किसी फ़्लोरेंस नाइटिन्गेल का जन्म होता,
शौर्य की गाथा को दोहराने
एक बार फ़िर
झाँसी की रानी बन
धरती पर अवतरित होती।
तभी सार्थक था उसका जीवन
और वँदनीय भी।

राख हुआ जीवन तो
किसी भी क्षण
हवा के तीव्र झोंके के साथ
दूर-दूर तक बिखर जायेगा
जब-तब
जाने किस-किस के पैरों तले
रौंदे जाने के लिये।

चेतना के स्वर, प. 6-7