Wednesday, June 6, 2007

पुरस्कार




दिसंबर का सर्द अलसाया मौसम। ऐसे में बिस्तर से उठने की कौन सोचता है, और फिर अभी पूरी तरह सुबह भी कहाँ हुई थी। कम से कम दो घंटे तो और आराम से सोया जा सकता है – ऐसा सोच मैने रजाई मुँह तक खींच ली। तभी धीरे से रजाई हटा सुधांशु ने एक कोमल सा स्नेह चिन्ह मेरे माथे पर अंकित कर दिया, “सालगिरह मुबारक हो चारु।”

“सालगिरह! ओह, मैं कैसे भूल आज का यह शुभ दिन।” आज हमारे सुखद वैवाहिक जीवन को पूरे पाँच वर्ष हो जायेंगे।

“तुम्हें भी मेरे प्यारे सुधांशु, तुम्हें भी बहुत बहुत मुबारक हो आज का यह शुभ दिन।” इतना कह मैं बहुत ही सहज भाव से पति के अंक में सिमट गयी। कैसा अनोखा संरक्षण और निश्छल प्रेम, कैसा देवतुल्य व्यक्तित्व, धन्य हो गयी मैं तो। सुधांशु जैसा पति हर किसी को थोड़े ही मिल पाता है। कितना चाहते हैं वह मुझे, कितना मान करते हैं वह मेरा और मेरी भावनाओं का। नन्ही पूजा के आ जाने से तो जैसे जीवन की हर साध पूरी हो गयी। सोचते-सोचते अपने अतीत में खो गयी थी मैं।

“सो गयीं क्या?”

सुधांशु की आवाज़ सुन पुन: चैतन्य हुई। सुबह के सात बज गये थे। “ओह! इतनी देर हो गयी, पूजा को स्कूल भी भेजना है।” पूजा को भेजने के कुछ देर बाद मैं पुन: इनके पास लौट आयी। ये बाहर बरामदे की मीठी-मीठी, खनकती धूप में बैठे अखबार देख रहे थे। बड़ी-बड़ी पनीली स्वप्निल आँखें, गेंहुआ रंग और काले, सघन, सुंदर केश, सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने, कंधे पर शाल डाले, ये बड़े ही तन्मय भाव से बैठे थे। मेरे लौट आने का बोध शायद इन्हें नहीं था। मैं कयी क्षण मंत्र-मुग्ध सी इन्हें निहारती रही। कैसा आत्मविश्वास और गरिमा झलकी है इनके चेहरे से। घर का शांत सरल वातावरण, सर्दियों की उजली धूप का मीठा-मीठा आभास और हर ओर रंग-बिरंगे फूलों की भीनी-भीनी महक्…मैं विभोर हो उठी। हल्के-हल्के पग रखती इनके पीछे जा खड़ी हुई और बड़े ही स्नेह से बाँहें इनके गले में डाल, अपना एक गाल इनके सिर पर टिका दिया।

“सुनो, आज कहीं घूमने चलते हैं।”
“बिल्कुल चलेंगे।”, मुस्कुरा कर उन्होंने कहा।

मुस्कुराते हुए वह कितने अच्छे लगते हैं। दाँयें गाल पर एक गड्ढा सा उभर आता है और नन्हें-नन्हें दाँत बच्चों जैसी आभा उत्पन्न करते हैं

अपूर्व आह्लाद से वशीभूत हो मैं घर के कार्यों में व्यस्त हो गयी। गुलाब के फूल इन्हें बहुत पसंद हैं। पीला, सफ़ेद और लाल गुलाबों का एक गुलदस्ता बना कर ड्राइंगरूम की खिड़की के नीचे रख दिया। अगरबत्तियों की भीनी महक से सारा घर महक उठा। इनका मनपसंद भोजन बना, मैं अपने कमरे में आ गयी। मेरा चेहरा प्रसन्नता के कारण आज खिल उठा था। भोलेपन की छटा बिखेरता, साधारण रूप-रंग, फिर भी कितनी सराहना करते हैं ये मेरी। कितना विरोध किया था इनके घर वालों ने हमारी शादी का, किंतु इनकी ज़िद के आगे कोई कुछ नहीं कर पाया। मुझे अपनी जीवन-संगिनी बना, कभी भी मुझ पर किसी की उलाहना, व्यंग्य, आक्षेप, क्रोध और कटुता की आँच नहीं आने दी।

विचारों में डूबते-उतरते, जाने कितना समय व्यतीत हो गया। तभी घंटी बजी। ये आ गये थे। पूजा भी साथ थी। खाना खा कर पिता-पुत्री बहुत संतुष्ट दिखाई दिये। तभी नैपकिन से हाथ साफ़ करते हुए ये बोले, “चलो अब जल्दी से तैयार हो जाओ, तीन बजे वाले शो में चलना है।”

बढ़िया बनारसी साड़ी पहन, माथे पर बड़ी सी बिंदिया लगा, ढीला-ढाला जूड़ा बाँध, मैं जल्दी से तैयार हो गयी। चलते-चलते कुछ सोचते से ये बोले – “अरे एक बात बताना तो मैं भूल ही गया। वह जो कहानी तुमने भेजी थी न, ‘पुरस्कार’ शीर्षक से, कहानी प्रतियोगिता में, उसका परिणाम इसी महीने की दस तारीख़ को आने वाला है। क्या पता पहला पुरस्कार तुम्हारा ही हो।”

“हाँ, हो भी सकता है।”, मैं शरारत से बोली

पिक्चर के बाद काफ़ी समय तक हम इधर-उधर घूमते रहे। जब घर लौटे तो शाम के सात बज रहे थे। अभी घर का ताला खोल ही रहे थे कि मिसेज़ गुप्ता, जो हमारी पड़ोसन होने के साथ साथ बी.ऐ. में मेरी अध्यापिका भी रह चुकी थीं, सामने से आती दिखाई दीं।

“आइये न मैडम”, मैने ही उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा।
“अरे फिर कभी सही, अभी तो तुम कहीं बाहर से आ रही हो।”

पर मेरे अनुरोध पर वह अंदर आ गयीं। कुछ देर इधर-उधर की औपचारिकतापूर्ण बातें होती रहीं, फिर स्कूल, कालिजों की। तभी वह पूछ बैठीं-
“अरे चारू, तुम्हारी उस कहानी का क्या हुआ, जो तुमने प्रतियोगिता के लिये भेजी थी?”
“इसी महीने की दस तारीख़ को उसका परिणाम आने वाला है, तभी कुछ पता लगेगा।”, मैने उत्तर दिया।

चलो ठीक है, वैसे तुम लिखती बहुत अच्छा हो। मैने तो पढ़ी ही हैं तुम्हारी रचनायें और फिर इस कहानी का रफ़-प्रूफ़ तो मैने आशुतोष मुखर्जी को दिखाया था। बड़ी सराहना कर रहे थे।” थोड़ी देर बाद मैं चाय ले आयी। चाय के घूँट भरते हुए मिसेज़ गुप्ता कहने लगीं-
“सप्ताह भर पहले ही मैं मेरठ गयी थी। वहाँ के कालिज में विमल जी का ‘आधुनिक कहानी के नये आयाम’ के उपर लैक्चर अच्छा था। बाद में चाय के दौरान यूँ ही कविता-कहानियों पर बात चली तो बोले कि ‘कहानी प्रतियोगिता’ के निर्णायकों में से वह भी एक हैं। वह स्वयं तो बहुत अच्छे आलोचक और उपन्यासकार हैं।”

अब तक मैं प्रसन्न्बदन उनकी बातें सुन रही थी किंतु विमल जी का नाम सुन कर मेरे अन्दर-अन्दर तक धुआँ-धुआँ सा भर गया।

“कौन विमल जी मैडम?”, मैने आशंकित हो कर पूछा।
“अरे वही मेरठ युनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर-विमल सक्सेना। अब तो वहीं हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं।” बड़ी लापरवाही से मिसेज़ गुप्ता बोलीं और चिप्स खाने में व्यस्त हो गयीं।

“तो वही हैं विमल सक्सेना, जिसका मुझे संदेह था। विमल सक्सेना, विमल सक्सेना, ये दो शब्द मानो मन-मन भर के हथौड़े बन, मेरी समस्त सत्ता को हताहत कर रहे थे।

“क्या हुआ चारू, तुम क्यों घबराती हो? तुम्हारी कहानी का पहला ईनाम कोई नहीं रोक सकता। अच्छा, अब चलती हूँ। तुम्हारे अंकल क्लब से लौट आये होंगे।”, मुस्कुरा कर पीठ थपथपा कर वह वापिस चली गयीं।

दिन भर की खुशी पर मानो घड़ों पानी पड़ गया था। चेहरे पर बरसों बीमारी के भाव झलकने लगे थे। बुझे मन से उठी, कपड़े बदले। पूजा वहीं ड्राइंग रूम में ही सो गयी थी। उसे उठाकर बिस्तर पर डाला। सुधांशु कपड़े बदलते हुए फ़िल्म का कोई गीत गुनगुना रहे थे। मुझे देखते ही बोले-
“कहो चारू, कैसा रहा आज का दिन?”
“बहुत अच्छा”, कह कर मैने ऊपर आकाश की तरफ़ देखा। उजले चांद की मधुरिम किरणें सारे कमरे को रोशन कर रहीं थीं। कितना शांत, कितना सुंदर। पलट कर देखा, सुधांशु एकटक मुझे ही निहार रहे थे।
“क्यों क्या हुआ”, कुछ परेशानी भरे स्वर में सुधांशु ने पूछा।
“कुछ भी तो नहीं, बस थकान हो गयी है।”
“आओ, चलकर सो जाओ, देर भी बहुत हो गयी है।”

बत्ती बंद कर हम लेट गये। कुछ देर तक तो ये प्यार से मेरे बालों को सहलाते रहे, फिर जाने कब सो गये। किंतु मेरी आँखों में नींद लेश-मात्र को भी नहीं थी। मुड़ कर देखा, चंद्रमा अपने पूरे यौवन पर था, ठीक मेरी खिड़की के पास। अनायास मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे वह चांद न होकर, विमल का सुंदर, गौरवपूर्ण चेहरा है, उसकी कल्पना है, उसके ह्र्दय का उदगार है। अबूझ रोमांच से मैं रोमांचित हो उठी, लगा चंद्रमा की प्रत्येक किरण इंगित कर मुझे अपनी ओर बुला रही है। पास सोये सुधांशु का एक हाथ सिर के नीचे था तो दूसरा मेरी कमर के गिर्द। धीरे, बहुत धीरे से मैने वह स्नेहिल हाथ हटाया और उठ कर खिड़की के पास आ गयी।

अर्ध-रात्री की अपर निस्तब्धता, हर ओर एक अजीब सन्नाटा। किंतु मेरे अन्तर्मन की हलचल बहुत तीव्र थी। हर पल मानो एक-एक वर्ष बन मुझे वर्षों पीछे ले गया था। खिड़की के पास आरामकुर्सी खींच कर मैं वहीं अधलेटी सी बैठी, बाहर के शून्य को निहारती रही। उसी शून्य के गर्भ से उभरते कयी चित्र मेरे सामने आते चले गये। वर्षों पुराना वह क्लासरूम मेरे सम्मुख स्पष्ट हो गया, जिसकी प्रथम सीट पर मैं ही बैठा करती थी। एम.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी मैं। अपने स्वभाव, सादगी और शालीनता के कारण मैं अपने सहपाठियों, सहपाठिनों एवं अध्यापकों में प्रिय थी। उन्हीं अध्यापकों में एक थे – विमल सक्सेना। अदभुत व्यक्तित्व था उनका। उनकी विद्वता एवं विचारों का मैं मान करती थी।

हाउस टेस्ट में मेरा प्रथम स्थान आया। मेरी बहुत सराहना की उन्होने, जिस से मेरी लगन और प्रेरणा को बल मिला। एक दिन, फ़्री पीरियड में अपने सहपाठियों के अनुरोध पर मैं तन्मय भाव से अपना ही लिखा गीत गा रही थी। विमल जी कब क्लास में चले आये, मुझे पता नहीं चला। गीत की समाप्ति पर वह बोले –
“तुम ने लिखा है यह गीत?”
“यह सर”, मैने सकुचाते हुए कहा।
“सर, यह बहुत अच्छा लिखती है।”, रवीन्द्र और सुलेखा ने कहा। सर कुछ बोले नहीं एक गहरी द्रष्टी डाल कर रोल-काल लेने लगे। फिर हमेशा की तरह हमें पढ़ाया और जाते समय मुझे अपने कमरे में आने के लिये कह गये। उन से मिलने पर उन्होने मेरी रचनायें देखने का अनुरोध किया और भविष्य में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। इसी तरह, आम दिनों की तरह दिन बीतते गये और देखते ही देखते छ: मास व्यतीत हो गये।

एक शाम, मैं अपने घर के बागीचे में पानी सींच रही थी। तभी देखा, विमल जी हमारे घर के गेट पर खड़े हैं। जिस नज़र से वह मुझे देख रहे थे, वह मेरे बहुत अंदर तक मुझे बेध गयी। वह नज़र औरों की नज़र से सर्वथा भिन्न थी। नल बंद कर मैं प्रसन्नतापूर्वक फाटक तक चली गयी।

“आइये न सर, यहाँ बाहर क्यों खड़े हैं?”
तभी भैया की आवाज़ ने मुझे चौंकाया –
“कौन है चारू?”
“मेरे सर हैं भैया, देखो तो।”

भैया बाहर आये और उन्हें सम्मान सहित अंदर लिवा ले गये। फिर माँ, भैया और सर बहुत देर तक आपस में बातें करते रहे। चाय-नाश्ता ले जब वह वापिस चले गये तो घर के सभी सदस्य उन्हीं की बातें करते रहे।

तभी पूजा की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई। वह पानी माँग रही थी। उठ कर उसे पानी पिलाया। सुधांशु की नींद भी उचट गयी थी। मैं पुन: उनके पास जा कर लेट गयी।

“अब कैसी तबियत है?”, सुधांशु ने पूछा।
“ठीक हूँ।”, सहज भाव से मैने कहा और आँखें बंद कर लीं

मैने थोड़ी देर के लिये सो जाना चाहा पर नींद फिर भी नहीं आयी। देखा चांद अब अस्ताचलगामी हो चला था। विमल का ध्यान फिर हो आया। उस दिन के बाद से अक्सर वे हमारे घर आने लगे। एक दिन मैं क्लास के बाद पैदल घर जा रही थी कि तभी एक बस मेरे पास आ कर रुकी और विमल जी उस से उतर कर चुप चाप मेरे साथ चलने लगे। मैं बड़ी हैरान थी।

“सर आप यहाँ क्यों उतर गये, यह बस तो आप को घर तक छोड़ देती।”
“तुम कुछ भी नहीं समझती क्या चारू?”
“सब समझती हूँ सर, शायद बरसाती मौसम देख कर आप का पैदल चलने को मन हो आया है। वैसे सर, आज का मौसम है बड़ा अच्छा। चलिये आज आप मेरे साथ हमारे घर चलिये।”
उन्होने एक लंबी आह भरी और मेरे साथ-साथ घर आ गये। माँ उन्हे देख कर बहुत प्रसन्न हुई। थोड़ी देर बाद उन्होने पकौड़े बनाये। हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगीं थीं सो भैया छाता ले कर काफ़ी दूर तक सर को छोड़ने गये।

दूसरे दिन से विमल जी सप्ताह भर के लिये दिखाई नहीं दिये। उनकी क्लास ब्रजेंद्र जी लेते रहे। एक शाम जब मैं डिपो से दूध लेकर आ रही थी तो देखा सड़क के उस पार विमल जी खड़े हैं। उन्हें देख, मैं उधर ही मुड़ गयी।

“अरे सर! आप कहाँ चले गये थे?”
“तो तुम्हें मेरी याद आती रही?”
इस अप्रत्याशित प्रश्न को सुनकर मैं चौंकी, पर प्रकट में कहा – “याद तो नहीं आयी सर, क्यों कि ब्रजेंद्र जी आपके बदले पढ़ाते रहे, पर सर, वह आप जैसा अच्छा नहीं पढ़ा पाते।”
“चारू, बहुत बचपना है तुम में, तुम कुछ भी जानने समझने की कोशिश क्यों नहीं करतीं?”, वह कुछ इस प्रकार बोले मानो मुझ से रुष्ट हो गये हों।
“चारू, तुम से कुछ बात करनी है”, वह पुन: बोले।
“बात करनी है तो घर चलिये। वहाँ माँ, भैया से……पर मुझे बीच में ही टोक कर आवेशपूर्ण शब्दों में कहने लगे – “तुम बहुत मूर्ख हो, मुझे तुम्हारे माँ, भाई से नहीं, तुम से बात करनी है।”
“तो-तो फिर कीजिये न”, मैने बैठे हुए स्वर में घबरा कर कहा।
सहसा उन्होने मेरा हाथ पकड़ लिया और बड़े ही स्नेह से कहा – “सुनो चारू, मैं……मैं तुम से शादी करना चाहता हूँ।”
“शादी! मुझसे!”, मैं मानो चेतना-शून्य हो गयी।
यह क्या घटित हो गया। इतने विद्वान, मुझ से इतनी बड़ी उम्र के सर, मुझ से शादी करना चाहते हैं। मेरा अन्तर्मन ऐसे ही अनेकों प्रश्नों के भँवरजाल में उलझ कर रह गया पर प्रत्यक्ष में मैं मात्र इतना ही कह पायी –
“लेकिन सर, मैने तो ऐसा कभी सोचा ही नहीं।”

मेरी सारी चपलता, उल्लास, अनमनापन, जाने कहाँ लुप्त हो गया। एक अन्जाना सा बोझ मन-मस्तिष्क पर छा गया था। कुछ दूर तो हम साथ-साथ चलते रहे, एक दूसरे से सर्वथा अन्जान बने। फिर मैं अपने घर लौट आयी। सड़क के मोड़ पर खड़े सर बड़ी देर तक मुझे देखते रहे थे। पर मैने जैसे सब कुछ अनदेखा कर दिया था। घर पहुँच कर माँ से सारी बातें कह सुनाईं।
“कैसी ध्रष्टतापूर्ण बातें हैं न ये माँ?”
पर मेरी आशा के विपरीत, माँ बहुत प्रसन्न हुईं।
“नहीं बेटा, यह तो हमारे लिये बहुत ही खुशी की बात है। इतना पढ़ा-लिखा, सुंदर, स्वस्थ लड़का स्वयं तुम से शादी की बात कर रहा है। इतने अच्छे लड़के हैं ही कितने?”

मेरे मन की कौन सुनता? मैं विमल जी का सम्मान करती थी, इसलिये कि वह विद्वान पुरुष थे, इसलिये नहीं कि मैं उनसे प्रेम करती थी।

अगली सुबह जब मैं युनिवर्सिटी पहुंची तो न मुझ में पहले जैसा उत्साह था और न ही किसी प्रकार की आशा अथवा निराशा की भावना। किंतु सर का सामना करने की शक्ति मुझ में नहीं थी। जिस रास्ते वह चलते, मैने उस रास्ते पर चलना छोड़ दिया। मन बहुत ही बेचैन और बुझा-बुझा रहने लगा। इसी ऊहा-पोह में कुछ दिन व्यतीत हो गये। एक दिन लाइब्रेरी में बैठी थी तभी विनीत आ कर मेरे पास बैठ गया –
“हैलो चारू, कहो तुम्हारा थीसिस कैसा चल रहा है?” फिर कुछ रुक कर कहने लगा, “तुम्हारे गाइड विमल जी तो बहुत इंटेलीजेंट हैं, बहुत अच्छा काम करवा रहे होंगे। पर भाई, हमें तो उन्होने चक्कर में डाल दिया। सोचा था, आज लाइब्रेरी में बैठ कर एक चैप्टर पूरा कर लूँगा पर वह कहने लगे, भाई विनीत, तुम्हें दिल्ली जाना होगा। उनकी पत्नी आ रही हैं न्। बच्चा और माँ साथ हैं। दिल्ली से रिसीव करूँगा। चलूँ फिर, ढाई बजे वाली बस पकड़नी है।”

विनीत चला गया पर आशंकाओं का एक गहरा जाल मेरे चारों ओर फैला गया। तो विमल जी विवाहित हैं फिर मुझ से शादी का प्रस्ताव क्यों? छि: कितने निक्रष्ट हैं उनके विचार्। कैसा-कैसा सा होने लगा मेरा मन। ओह! मैं क्या समझती थी उन्हें, पर…ऐसा नहीं करना चाहिये था उन्हें। पर तभी लगा, एक भारी बोझ दिमाग़ से उतर गया। ऐसे व्यक्ति से भला मैं क्यों शादी करूँगी। भले ही वह कितना नामी और विद्वान क्यों न हो। घर लौट कर जब माँ को यह बात बताई तो वह भी अचंभित रह गयी।

एक दिन घर लौटने पर देखा, एक प्रौढ़ा माँ के पास बैठी हैं। मुझे देख कर बोलीं – “तो यही है तुम्हारी बेटी जिसने मेरे इतने लायक बेटे की मन की शान्ति छीन ली है।” पुन: माँ को सम्बोधित करती हुई बोलीं, “सुनो बहन, इन्कार न करो। मेरा बेटा लाखों में एक है। अपनी पहली गँवार और बदसूरत पत्नी से वह कोई संबंध नहीं रखेगा।”

पर मेरी माँ ने यह संबंध स्वीकार नहीं किया। विमल जी की माँ चली गयीं पर मेरा शांत मन परेशानियों से भर गया था। इस बार का मेरा परीक्षाफल भी अच्छा नहीं रहा। विमल जी को देख कर मेरा मन दुविधाओं से भर उठता।

हमारी वार्षिक परीक्षा निकट थी। परीक्षा फ़ार्म भर कर मैं अकेली ही घर लौट रही थी, तभी विमल जी जाने कहाँ से आ गये। तपती दोपहर, सुनसान सड़क, आगे बढ़ कर उन्होने मेरा हाथ पकड़ लिया।
“चारू, तुम्हें मुझ से शादी करनी होगी, अभी, इसी समय।”
“सर आप सोचते क्यों नहीं, आप की पत्नी है, बेटा है। मेरा ऐसा करना उनके प्रति घोर अन्याय है। ऐसा नहीं हो सकता। आप मेरे गुरू हैं, मैं आप के प्रति ऐसा सोच भी नहीं सकती।”
“कुछ भी हो चारू, यह विवाह अवश्य होगा।”

विमल जी प्राय: घसीटते से मुझे सामने से आती रिक्शा की ओर ले चले। मैं पागल हो उठी। भूल गयी उनका महत्व, उनकी पोज़िशन और उनका अस्तित्व। क्रोध के वशीभूत हो मैने उनका हाथ काट लिया। मेरा हाथ स्वत: छूट गया। तभी पीड़ा से कराहते हुए उन्होने कहा –
“ठीक है चारू, तुम भी देखना, शूट कर लूँगा मैं अपने आप को। देख लेना चारू तुम, देख लेना।”

पर मैने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। परेशान, घबराई, जब मैं घर पहुँची तो भोली माँ हैरान, परेशान कुछ समझ नहीं पाई। माँ के आँचल में सिमट, मैं सिसकियाँ भरती रही, तड़पती रही। एक ओर अन्याय के प्रति घोर विरोध की भावना, पर पत्नी और बच्चे के प्रति करूणा और दया के भाव। फिर यह अबूझ सी छटपटाहट क्यों? उनकी आत्म्हत्या कर लेने की बात का अकारण भय क्यों? विमल जी के प्रति किये गये व्यवहार के प्रति क्षोभ और ग्लानि क्यों? क्या मैं उन्हें चाहने लगी थी? क्या मुझे उनसे विवाह कर लेना चाहिये? आह! लगा साँस घुट रही है और दूर-दूर तक अनेकानेक कंटीले कैक्टस उग आये हैं।

सुबह जब आँख खुली तो काफ़ी दिन चढ़ आया था। सुधांशु ने ही दो कप चाय बनाकर मुझे जगाया। चाय के कप ले हम बाहर लान में आ बैठे।
“सुनो जी, वह जो कहानी प्रतियोगिता का निर्णायक मंडल है न, उसमें विमल सक्सेना भी हैं।”
“वही विमल सक्सेना तो नहीं जो कभी तुम्हारे अध्यापक थे और तुम्हारे दिवाने भी।”, इन्होनें शरारत से कहा।
"हाँ, हाँ वही।”
"बस, फिर तो तुम्हारा इनाम पक्का रहा। तुम्हारा नाम पढ़ते ही प्रथम पुरस्कार तुम्हारे नाम कर देंगे।”
“चलो हटो, मज़ाक मत करो”, मैने चिढ़कर कहा। वह हँसते हुए आफ़िस के लिये तैयार होने लगे। कुछ समय उपरांत मात्र मैं रह गयी, अपनी यादों के सहारे।

कितना टूट गये थे विमल जी मेरे इस व्यवहार से। पर उसके बाद उन्होने कभी भी मुझ से इस विषय में कोई बात नहीं की। थीसिस का काम कराते समय जो कुछ भी समझाना होता अथवा चेक करना होता, नीची निगाह किये कर देते और शीघ्र उठ कर चले जाते। मुझे उनका यह शुष्क व्यवहार बहुत अखरता। अंदर एक टीस सी उठती। कितनी दूरी आ गयी थी हम दोनो के बीच, और ऐसा होना मेरे लिये हितकर ही था। फिर भी न जाने क्यों मन चाहता कि वह पहले की तरह ही हसें, बोलें।

अपने एकाकी क्षणों में कभी-कभी यह विचार भी आता कि उन से विवाह करने से मेरी प्रतिभा को, मेरी लेखनी को एक विद्वान पुरुष का संबल मिल सकता है। कितने अच्छे साहित्यकार हैं विमल जी। वह स्वयं भी तो मुझे एक प्रतिभाशाली लेखिका के रूप में देखना चाहते थे। पर फिर मेरा स्वार्थी मन मुझे धिक्कारने लगता। किसी के आंसुओं और दु:खों की नींव पर टिका सुख क्या चिरस्थायी हो सकता है? जाने कैसे प्रलाप में मैं जीने लगी थी। एम.ए. फ़ाइनल की परीक्षा को अभी दो महीने शेष थे, तभी विमल जी की बदली हो गयी। ब्रजेंद्र जी हमारी क्लास लेते रहे और इसी प्रकार मैने परीक्षा दे दी।

सुधांशु हमारी ही युनिवर्सिटी के मेधावी छात्रों में से थे और मन ही मन मुझे चाहते भी थे। कुछ समय बाद हम दोनो का विवाह हो गया। विवाह से पूर्व मैने विमल जी के बारे में इन्हें सब कुछ बता दिया था। कितने सहज रूप से हमारा घर-परिवार चल रहा था। कितना अटूट विश्वास है इन्हें मुझ पर। और फिर मैं कौन सी विमल से जुड़ी हुई हूँ। पर यह मुझे कुछ दिनों से क्या हो गया है? विमल जी की कल्पना सुखकर क्यों प्रतीत होने लगी है?

मेरे पति हैं, एक सच्चे और नेक इन्सान हैं, परंतु क्लब, पार्टियों, सभा, सम्मेलनों से इन्हें चिढ़ है। कभी सोचती कि यदि मेरे पति का पूरा प्रोत्साहन व सहयोग मुझे मिलता तो आज मैं एक प्रतिष्ठित लेखिका होती। कभी-कभी ऊहापोह में बौखला कर मैं माथा पकड़कर बैठ जाती। एकांत के क्षण मुझे बड़े ही कष्टकर प्रतीत होते। सोचती, क्या विमल जी अब भी मुझे चाहते होंगे? उन्होने तो मेरे वियोग में मर जाने की बात कही थी न, पर कहाँ मर पाये। युनिवर्सिटी की अच्छी पोस्ट पर हैं। अब तक अवश्य मुझे भूल गये होंगे। ठीक ही तो है। किसी के न मिलने पर कोई मर तो नहीं जाता। फिर मैं क्यों परेशान हूँ? इतने वर्षों बाद इन बेकार की बातों में उलझना पागलपन के सिवा और कुछ नहीं है।

पर फिर विचारधारा ने करवट बदली। विमल जी ने मेरी कहानी पढ़ी होगी। मेरा नाम पढ़कर कुछ तो कौंधा होगा उनके मन मस्तिष्क में। पुराने दिन तो याद आये होंगे। कितना चाहते थे मुझे। निर्णायक कमेटी के चेयरमैन हैं, प्रथम पुरस्कार मेरा ही होना चहिये। ऐसा सोच कर मैने अपने आप को आश्वस्त कर लिया। किंतु मेरा प्रथम तो क्या दूसरे अथवा तीसरे नंबर का भी पुरस्कार नहीं था। प्रथम पुरस्कार किसी रूही बैनर्जी का था।

“देखा तुमने, कुछ भी नहीं मिला मुझे।”, मैं रूआंसी हो आयी थी।
“अरे भाई, तो क्या हुआ, फिर कभी निकल आयेगा कोई इनाम।”
“पर……विमल जी के होते हुए!”
“ओहो, हो सकता है तुम्हारा ध्यान उनके दिमाग से उतर गया हो। कितने साल हो गये हैं। कभी मिलना भी नहीं हुआ”, सुधांशु बड़े प्यार से मुझे समझा रहे थे। पर न जाने क्यों मुझे उन पर क्रोध आने लगा था। चिढ़ सी होने लगी थी उन से। ऊँह, कुछ समझते तो हैं नहीं, बस उपदेश देने लगते हैं। मेरी मानसिक दशा का इन्हें क्या पता। सारा दिन बस घर-ग्रहस्थी में जुटे रहो। ऊपर-ऊपर से कह दिया, बहुत अच्छा लिखती हो। ख़ाक अच्छा लिखती हूँ। अच्छा लिखती तो आज ऐसा न होता। न कभी कवि सम्मेलनों में ले कर गये, न साहित्यिक समारोहों में। बस पिंजरे की चिड़िया बना कर रखा है। सारा दोष इनका है, केवल इनका। विमल जी भी क्या करते। कोई कमी रह गयी होगी कथानक में। कितना उत्क्र्ष्ट प्रेम था उनका। कहा करते थे –
“चारू, व्यक्ति का बाह्य रूप तो छलावा मात्र है। वास्तविक सुंदरता तो मन की हुआ करती है और तुम्हारा मन अतीव सुंदर है।”

पर मैं अपने कलाकार मन से पूर्ण साक्षात्कार कब कर पाई। बस कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात ग्रहस्थी में ही खटती रही।

कैसा मानसिक आघात था यह्। सुधांशु से बात करने की इच्छा न होती। वे मेरे इस अप्रत्याशित व्यवहार पर मेरे प्रति क्रोध के स्थान पर मुझे और अधिक प्रेम देने की चेष्टा करते। पर मुझे उनकी हर बात में बनावटीपन दिखाई देने लगा था। अपने एकांत के क्षणों में मैं विद्रोहिणी हो उठती।

साँझ घिर आयी थी। हम दोनो चुप-चाप बाहर लान में टहल रहे थे। तभी आशुतोष जी आ गये।
“कहो चारू, कैसी हो? भाई तुम्हारी कहानी का हमें बड़ा दुख है”, लान चेयर पर बैठते हुए उन्होने कहा।
“कोई बात नहीं मि. मुखर्जी, यह सब तो चाँस की बात है”, इन्होने कहा।
“नहीं-नहीं सुधांशु जी, इसी बात का तो दुख है कि यह चाँस की बात नहीं है। शायद आप नहीं जानते कि मैं भी निर्णायक कमेटी का सदस्य था। एक थे अपने मुकुंद क्रपलानी, ‘मानसरोवर’ के संपादक्। विमल सक्सेना थे निर्णायक कमेटी के चेयर्मैन। सभी कहनियों में चारू की कहानी सर्वोत्तम थी। मुकुंद जी और मैं इसी कहानी के प्रथम पुरस्कार के पक्ष में थे किंतु विमल जी ने इसका विरोध किया और इस प्रकार इनकी कहानी पुरस्क्रत नहीं हो पायी। एक प्रभावशाली व्यक्ति का विरोध करना हमारे लिये कठिन था, सो हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाये। किंतु एक बात समझ में नहीं आती कि ऐसा उन्होने क्यों किया?”
“छोड़िये भी मुखर्जी साहब इस बात को, क्या फ़र्क पड़ता है इस से। कलाकार की कला तो पूर्णिमा के चाँद सी सर्वदा उदभासित होती रहती है, उस में दाग़ थोड़े ही लग जाता है।”

मैनें चौंक कर सुधांशु की ओर देखा, पर चुप बैठी रही। आशुतोष जी के लिये यह एक विस्मित कर देने वाली घटना थी। किंतु मेरे सम्मुख विमल जी का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो चला था। यह पुरस्कार न दे कर उन्होने मुझ से अपनी अवहेलना, अपने प्रति किये गये निरादर का बदला लिया था। किंतु सच्चा प्रेम अनुदान तो नहीं चाहता। महानता की बातें करने वाले विमल सक्सेना, आज तुम बहुत छोटे हो गये हो मेरी द्रष्टी में।

मि. मुखर्जी जा चुके थे। आज अपने सुधांशु के प्रति मेरा विद्रोही मन पूर्णत: शांत हो गया था। सारे भ्रमजाल मिट गये थे। सारी विरोधी भावनाओं और आक्षेपों का अंत हो गया था। मेरा अन्तर्मन मुझे धिककारने लगा था। अपने देवतातुल्य पति की अवहेलना करती रही मैं, इतने दिन। मेरा वास्तविक अमूल्य पुरस्कार तो मुझे अपने पति के रूप में वर्षों पूर्व मिल चुका था। फिर अन्य किसी भी प्रकार के पुरस्कार की लालसा क्यों? अकारण ही व्यर्थ की भटकन क्यों? सहसा मैं पति के अंग से लग, फूट-फूट कर रो पड़ी।
पश्चाताप के आँसुओं से मन का समस्त मैल धुल गया था।
अहस्ताक्षरित संधिपत्र (Short Stories), इतिहास शोध-संस्थान, नयी दिल्ली, 1994, भाषा विभाग, पंजाब, द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता से प्रकाशित

Friday, June 1, 2007

अहस्ताक्षरित संधिपत्र




एयर बैग को कंधे से लगाये, लगभग दौड़ता हुआ वह first-class के compartment में चढ़ गया। जनवरी के महीने में भी उसका सारा शरीर पसीने से तर हो रहा था और साँस फूली हुई थी। ओह ! कहीं ट्रेन छूट जाती तो…?

रात्री के ग्यारह बज रहे थे। कुछ पल तक निरीक्षणात्मक द्रष्टी से वह इधर-उधर देखता रहा और खड़े – खड़े ही रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछता रहा। रात्रि का गहन अंधकार हर ओर फैला हुआ था। मात्र गाड़ी की छुक – छुक की ध्वनि ह्रदय की धड़कन का साथ दे रही थी और उसके साथ – साथ जाने कितनी अस्फ़ुट ध्वनियाँ सर्राटे के वेग से मिली – जुली अनचाहे ही सुनाई दे जाती थीं।

तभी वह झुका, बैग से Rider Haggard का “She” निकाल कर सीट पर जा बैठा और पढ़ने लगा। आग के झरने में नहा कर सदाबहार रहने वाली नवयौवना ‘शी’ कुछ क्षणों तक उसकी कल्पना में साकार हो मुस्कुराती रही जो अपने प्रेमी को भी अग्नि – कुंड में नहला कर चिर यौवन प्राप्त अमर पुरुष बना देना चाहती है। ‘यदि ऐसा कहीं संभव हो जाये तो मनुष्य विक्षिप्त हो जाये’, उसका अन्तर्मन उसे कह रहा था – यह दु:खपूर्ण संसार और अमरत्व पाने की ऐसी मोहक भूख…कितना वोरोधाभास है दोनो में।

अब तक पढ़ते – पढ़ते वह थक चुका था किंतु नींद आँखों में लेश – मात्र को भी न थी। जेब से सिगरेट निकाल, देर तक उसके कश खींचता रहा और दूर कहीं विलीन होते उसके धुएं के छल्लों के साथ आँख मिचौनी खेलता रहा।
सहसा उसकी द्रष्टि सामने पड़े सूटकेस पर पड़ी। सुनहरे शब्दों से लिखा ‘नीला दत्त’ क्षणांश को उसे अंदर तक बेध गया। ‘नीला दत्त’, कौन नीला दत्त?

साथ ही सीट पर सोई महिला ने अनजाने ही करवट ली और उसका गदराया सलोना हाथ उसके घुटनों में आ लगा। विस्फ़रित नेत्रों से जाने कब तक वह उसे एकटक निहारता रहा। उसे अपनी आँखों पर सहज विश्वास नहीं हो पा रहा था। हतवाक्य हतबुध्धी – सा वह जाने कब तक यूँ ही बैठा रहा। हठात उसने बैग का मुँह दूसरी तरफ़ कर दिया और उठने को हुआ किंतु उसे लगा कि जैसे उसके पैरों में भारी बेड़ियां डाल दी गयी हैं। चाह कर भी वह उठ नहीं पाया।

उसका एक हाथ अब तक नीला के हाथों में था। लेटे – लेटे ही वह मुस्कुराती आँखों से देख रही थी और उसके बर्फ़ हुए हाथ धीरे – धीरे सहला रही थी। उसकी अधखुली आँखों में एक अछूता सा प्रश्न था। मानो वह पूछ रही हो –


“डू यू एवर रेमेम्बर मी सुनील?”

जाने कब तक वह सकुचाया सा खड़ा रहा। तभी जैसे उसकी चेतना लौटी;
“ओह ! नीला ही तो हो न तुम, पर यहाँ कैसे, कहाँ जा रही हो?”
“बहुत घबरा गये हो मुझे देख कर, अच्छा रुको, मैं तुम्हें चाय पिलाती हूँ।“

चाय का गिलास उसके हाथों में दे कर वह देर तक उसे चाय सिप करते देखती रही। तभी कुछ सोचती हुई सी बोली –
“तुम कुछ पूछ रहे थे क्या?”
हाँ, यही कि आज कल तुम कहाँ हो, क्या करती हो।“

वह कुछ बोली नहीं। माथे पर बिखर आई लटों को पीछे की ओर संभालते हुए मुस्कुराती रही। उसकी आँखें सुनील के उधड़ गये कालर के कोने पर टिकी थीं।

चाय का अन्तिम घूंट भरने तक सुनील कुछ विचलित हो उठा था।
“तुम ने कुछ बताया नहीं नीला, तुम्…”

एक दीर्घ नि:श्वास ले वह उठ खड़ी हुई और सुनील के निकट आ बैठी।
“मेरे बारे में जानने को बहुत इच्छुक हो, क्यों?” फिर कुछ रुक कर “दिल्ली में हूँ, माडलिन्ग करती हूँ। बहुत ही ग्लैमरस लाइफ़ है। नये – नये चेहरे, नयी भाव – भंगिमाएं, नवीन रूप – रेखायें। और फिर इन सब से ऊपर है व्यस्तता। व्यस्तता, जो अतीत की कड़वी, मीठी स्म्रितियों पर अंकुश लगाये रहती है, वह अंकुश जो मुझे पैरों पर खड़ा होना सिखाता है। पर तुम्हें इस से क्या? तुमने तो मुझे हमेशा-हमेशा के लिये अंधेरों के गर्त में समाहित होने के लिये छोड़ दिया था न। बोलो, क्या तुम नहीं चाहते थे कि मैं बरबाद हो जाऊं और तुम सुखपूर्वक जी सको।“ वह अतयंत भावुक हो उठी थी।

“नहीं नीला, ऐसा कुछ भी नहीं था”, वह समझौते के स्वर में बोला। पर वह उठ खड़ी हुई और खिड़की के निकट जा कर खड़ी हो गयी। उठते समय शाल उसके कंधों से नीचे आ गिरा। लाल ड्रेन पाइप पैंट और पीली स्कीवी में वह आज भी उतनी ही मोहक लग रही थी जितनी कि आज से पाँच वर्ष पूर्व्।

मंत्र – मुग्ध सा वह उसकी तरफ़ देखता रहा, बोला कुछ नहीं। कूपे का सहज एकांत उसे सुखद प्रतीत होने लगा। मात्र दो सहयात्री और वातावरण की अपार निस्तब्धता। उत्तेजना उसके ह्रदय पर थपथपाने लगी, किंतु विगत की कड़वाहट में वह सोंधी गमगमाहट दब कर रह गयी।

फिर भी मानस स्म्रितियों के आकाश को बेंध, उस विगत को बांध लेना चाहता था जो उसका अपना था। कितना कुछ देना चाहा था उसने अपनी पत्नी नीला को – ह्रदय का सम्पूर्ण प्यार एवं अटूट विश्वास्। किंतु क्या वह उस प्रेम का अनुदान कर पाई? जीवन में जो कुछ भी था, मात्र औपचारिकता थी, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।

लाइटर निकाल कर सिगरेट सुलगा लिया उस ने और बाहर अंधेरे में कुछ ढूंढने की निरर्थक चेष्टा करने लगा। नीला अब तक सीट पर बैठ चुकी थी और एकटक उसी की ओर देख रही थी।
“तो तुम ने सिगरेट पीनी छोड़ी नहीं। इधर तुम्हारा स्वास्थ्य भी कुछ ठीक नहीं लगता।“

कुछ पलों तक वह सिगरेट के धुयें को दूर कहीं लुप्त होते देखता रहा, विस्म्रित सा। कैसा भ्रमजाल था वह जिस में वह वर्षों तक उलझा रहा। नागमणि का सा अस्तित्व लिये नीला उसे प्रतिपल छ्लती रही और कातर म्रग-छौने सा हर क्षण मर्दित होता रहा था वह्। सहसा जाग्रत होकर वह पूछ बैठा, “राजीव और शेखर कैसे हैं, तुम्हारे पास तो आते होंगे न?” इस अप्रत्याशित प्रश्न से नीला चौंकी, सचेत हो कुछ क्षणों तक सुनील की आँखों में झांकती रही।

“लगता है, तुम अब भी मुझ से नाराज़ हो, तुमने अब तक मुझे क्षमा नहीं किया। सच कहना सुनील, इन बीते वर्षों में क्या कभी मेरी याद नहीं आयी तुम्हें?”

“ऐसा था ही क्या नीला जिसे याद किया जा सके। उपेक्षा, उपहास और अनादर। मैं नहीं समझता इस सब में याद रखने योग्य कुछ है। फिर भी, बरसों तक घुटन, क्षोभ और पीड़ा के अनवरत तपते गरल को पी कर भी मैं कहाँ, किस छोर से अब तक तुमसे जुड़ा हूँ कह नहीं सकता, और क्यों? यह मैं स्वयं नहीं जानता।“

सहसा चौंक कर, “लगता है कोई स्टेशन आ रहा है – कुछ लोगी क्या?”
“नो थैंक्स।“
“कुछ तो”, सुनील के स्वर में कुछ आग्रह था।
“नहीं, रहने दो।“ “हाँ सुनो, तुम्हें क्या भूल गयीं वे रातें जब हम झील के किनारे रेत की नैया पर बैठ कर घंटों चाँदनी का गीत गाया करते थे। कितना सुंदर गाते थे न तुम। विशेष कर वह गीत –

“अंधेरों की चादर उठाकर तो देखो,
सितारों की मोहक मधुर रोशनी है।
धरा से गगन तक सुषमा ही सुषमा
नवल चंद्रमा की धवल चाँदनी है।“


“सच, तो तुम्हें आज भी याद है वह गीत?”
“क्यों नहीं”, मधुर विकम्पित शब्दों में नीला के अधर हौले से खुले।
“और तुम रोती कितना अच्छा थीं न।“
“मैं रोती थी, पर भला क्यों?”
“अच्छा जी ! भूल गयी वह शाम, जब उस बीहड़ घने जंगल में एक पुराने खंडहर के पीछे…तभी वाक्य पूरा होने से पहले ही नीला ने आवेश में आ कर दो तीन धौल सुनील की पीठ पर जमा दिये।
“नटखट कहीं के, शैतान…” हंसते हंसते मानों वह सब कुछ भूल गयी थी, भूलती जा रही थी।

सहसा चैतन्य हो कर, “आई एम सो सौरी सुनील, मुझे ऐसा नहीं करना चहिये था।“ नीला की आँखें स्वप्निल सी हो रही थीं और चेहरा गहन विषाद में डूबता जा रहा था।

“जीवन में अनजाने, अनचाहे ही कभी-कभी कुछ ऐसा घट जाता है जिस की हम कल्पना तक नहीं करते।“
“किंतु वास्तविकता को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता, नीला।“
“नहीं नहीं, ये सब झूठे आक्षेप हैं मुझ पर। जो कुछ भी हुआ, मात्र तुम्हारे भ्रम के कारण, अन्यथा मुझ में कोई कमी नहीं थी।“
“तभी तो तुम्हारे चाहने वालों की भी कभी कमी नहीं रही।“, सुनील के चेहरे पर उपेक्षा के भाव स्पष्ट थे जो नीला से छुपे नहीं रहे।
“ओह शट अप”, फिर थोड़ी शांत होते हुए वह स्वत: बुदबुदाई, “आज बरसों बाद हम मिले हैं, क्या लड़ने-झगड़ने के लिये, एक मित्र की तरह ट्रीट करो मुझे”।

कुछ समय तक दोनो चुप रहे।


“कहो क्या करते हो आजकल, वहीं लखनऊ में हो या कहीं और?”, नीला का स्वर था।
“वहीं हूँ, अपना बिज़नेस है, लाखों का लेन-देन है, किंतु जीवन की वास्तविक शांति और सुख मुझ से कोसों दूर है। लगता है जैसे सब कुछ निरर्थक है…”

सहसा नीला का मुक्त हास्य उसे चौंका गया।


“हंसती हो?”
“ओह ! सुनील, आई कैन नाट बिलीव कि तुम ऐसी बात करोगे। तुम जो मुझे जीवन की सार्थकता समझाते थे। हाऊ स्ट्रेंज्।“ और वह जाने कितनी देर तक यूँ ही हँसती चली गयी और हँसते हँसते उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये।

“बहुत सैन्टीमेंटल हो गयी हो नीला और सैन्सिटिव भी। पहले तो ऐसी न थी।“
“तुम भी तो सुनील्…अच्छा कहो अभी तक शादी क्यों नहीं की?”
“तुम ने कर ली क्या?”
“नहीं, कभी सोचा ही नहीं इस विषय में और फिर विगत वैवाहिक जीवन के वे पाँच वर्ष यदा-कदा haunt तो करते ही हैं न्।“
“मुक्ता की शादी तो हो चुकी होगी अब तक?”
“हाँ हुई तो, उसी अपने राजीव से।“

सहज बैठे सुनील का अस्तित्व मानों इन शब्दों…अपने राजीव… से अन्दर तक खंडित होता चला गया। वह उठ खड़ा हुआ। उसे लगा, वह असंख्य नागों के पाश में जकड़ दिया गया है और उनका वह ज़हरीला दंश धीरे-धीरे उसकी समस्त सत्ता को तिरोहित करता चला जा रहा है। आह ! राजीव और शेखर, ये दो नाम वर्षों तक उसके समस्त पौरुष को आहत करते चले गये हैं; जब तब कल्पना में साकार हो उसकी उपेक्षा करते हैं।

सीमा और मर्यादा के महल को खँडहर होते वह कब तक देख सकता था। कुंठाग्रस्त जीवन कब तक जीता, भ्रष्टा पत्नि के साहचर्य को कब तक स्वीकरता, संबंध विच्छेद ही उसकी नियति थी। इस से पूर्व कि कोइ तीसरा राहु उसके जीवन को ग्रसे, वह नीला से सदा-सदा के लिये विलग हो गया था। नीला ने भी साथ रहने का कोई झूठा प्रदर्शन नहीं किया था। कितने ही सहज रूप से ग्रहस्थी की टूटती-जुड़ती कड़ियाँ हमेशा-हमेशा के लिये समाप्त हो गयीं थीं। यह आश्चर्यजनक विच्छेद सुखद था अथवा दु:खद, इस का निर्णय वह अब तक नहीं कर पाया।

सहेज कर रखे हुए ब्लाउज़ के टूटे बटन, जूड़े की सुई और कभी मेले में खरीदी गयी हाथीदाँत की चूड़ियों के सफ़ेद जोड़े – स्म्रतियों के खुले आकाश में धवल कपोतों के सद्रश आज भी रह-रह कर उस से कुछ सवाल किया करते हैं, जिनका उत्तर संभवत: उसके पास नहीं है।

“अच्छा नीला कहो, क्या तुम्हें कभी अकेलापन नहीं महसूस होता?” नीला के निकट बैठते हुए उसने प्रश्न किया।

बहुत देर तक उंगली में पड़ी प्लेटिनम की अंगूठी को इधर-उधर घुमाती रही। बोली कुछ नहीं। सुचारू रूप से तराशे गये नाखून उसकी सुद्रढ़ता के परिचायक थे; हल्के शेड की नेल-पालिश उस पर बड़ी अच्छी लग रही थी। उसकी लंबी उँगलियॉ अब तक अंगूठी से उलझी हुई थीं।

फिर धीरे से…”कयी-कयी बार बहुत निराश हो जाती हूँ सुनील्। नाम, ग्लैमर, रूप का जादू, सब बहुत फीका-फीका लगने लगता है। अनेकों बार उन सुद्रढ़ हाथों की कामना करती हूँ जो केवल मेरे हों और हर क्षण मुझे सहेज कर मेरा संरक्षण कर सकें। पर नहीं, मैं इसके योग्य कहाँ। आज आभास होता है कि जीवन की वास्तविक प्रसन्नता उन्हीं क्षणों में निहित थी जो क्षण तुम से जुड़े थे, उन वर्षों में थी जो वर्ष हम दोनों के थे। यद्यपि हम उस समय के साथ न्याय नहीं कर सके, उसका सदुपयोग नहीं कर सके। कुछ भी हो, आज वही अतीत मेरा अपना है और तुम सुनील, तुम, तुम्हारे लिये क्या कहूँ।“

“उस सब की ज़िम्मेदार तुम हो नीला तुम, मैं नहीं।“
“कुछ भी कह सकते हो”, बैग में से नन्हा रेशमी रूमाल निकाल कर वह अपनी आँखें पोंछने लगी।
“अरे, यह वही रूमाल है न जो…”
सुनील का वाक्य पूरा होने से पहले ही नीला मुस्कुराई, एसा लगा मानो बादलों भरे आकाश में इन्द्रधनुष चमक उठा हो।
“हाँ, वही जो तुमने मेरी 25वीं वर्षगांठ पर भेंट स्वरूप दिया था – साड़ी के साथ, हल्के पीले रंग की साड़ी, काले बार्डर वाली, याद है न। तुम समझते होगे कि एक दूसरे से विलग हो जाने पर स्म्रतियां फूल-कलियों की तरह हवा के झोंके में समय की प्रताड़ना सहते-सहते इधर-उधर बिखर जाती हैं, हमेशा-हमेशा के लिये समाप्त हो जाने के लिये, पर सुनील, तुम क्या समझोगे। याद हमेशा सजग रहती है, साथ रहती है किसी न किसी रूप में। तुम से विलग हो, तुम्हारे अभाव ने जीवन की विचारधारा को ही बदल दिया। कुछ समय तक तो मैने स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतंत्र पाया। तब शेखर व राजीव मुझ से खुल कर मिलने लगे। एसा आभास होता था, जीवन की वास्तविक खुशी और सुख बस वही है। सुरमयी सांझें और मेरी हर रात स्वप्निल, मादक और झील के झिलमिलाते जल में डूबती-उतरती पनडुब्बी के समान मोहक हो गयी थी। इसी बीच रमन शर्मा से मेरी भेंट हुई। बहुत समय तक हम दोनों के बीच प्रेम नाटक भी चलता रहा। उसने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव भी रखा। किंतु तुम से टूट कर भी मैं, कहीं न कहीं तुमसे जुड़ी हुई थी; उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया मैने और हमेशा के लिये दूर हो गयी। जीवन की एक-रसता से ऊब कर मैं तुम से दूर चली गयी थी। राग-रंग की महफ़िल भी अधिक देर तक साथ न दे सकी। जीवन कि अस्थिरता बेचैन करने लगी। परिणाम यह हुआ कि मैं टूटने लगी – मित्रों से दूर रहने लगी। एक शाम सुनने को मिला कि कार एक्सीडेंट में शेखर वालिया की म्रत्यु हो गयी है।“

“ओह ! तुम्हें तो बहुत कष्ट पहुंचा होगा, यह दु:खद समाचार सुन कर”, सुनील की बात में व्यंग्य का पुट स्पष्ट था। “और हाँ, राजीव तो तुम्हारा फ़ैन था न? मुक्ता के साथ कैसे कर दी उसकी शादी?”

सुनील का प्रश्न सुन नीला कई क्षणों तक चुप रही फिर धीरे से बोली, “तुम क्या विश्वास कर लोगे मेरी बातों पर? ख़ैर, मैं नहीं जानती थी कि वह छ्दमवेशी एक साथ हम दोनो बहनों के साथ प्यार का स्वांग कर रहा है। बात तो तब जा कर खुली, जब एक रात मुक्ता घबराई हुई मेरे पास पहुंची। रोते-रोते उसकी हिचकी बंध गयी थी। जो कुछ भी मुझ से उसने कहा, वह मेरे लिये विष बुझे बाण से कम नहीं था, जिसे सुन कर मैं जड़ हो गयी थी। मुक्ता गर्भवती थी। उसे बचाने का सर्वोत्तम उपाय यह शादी थी। आज वह एक बच्चे की माँ है। किंतु स्वास्थय ठीक नहीं रहता। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखते हुए अक्सर मुझे उसके यहाँ जाना पड़ता है। राजीव और मुक्ता मुझे बहुत मानते हैं।“ इतना कह कर नीला चुप हो गयी। अब तक वह काफ़ी थक चुकी थी। उठ कर बाथरूम तक गयी। लगभग दस मिनट पश्चात जब लौटी तो हाथ-मुँह धो कर तरो-ताज़ा दिखायी दे रही थी। अपने स्थान पर बैठते ही वह पुन: बोली, “ सच सुनील, किसी के भाग्य में क्या लिखा होता है, यह वह स्वयं नहीं जानता और यहीं आ कर मानव अपने आप को बहुत बौना महसूस करने लगता है।“

फिर कुछ सोच कर, “जो भी हो, समय परिवर्तनशील है न, उसके साथ-साथ मानव मन, उसकी प्रतिक्रिया भी तो बदल सकती है, क्या तुम ऐसा नहीं सोचते?”
“क्यों नहीं, ऐसा हो सकता है।“
“तो सुनील, मुझे क्षमा कर दो, उस अतीत को, उन वर्षों को, जो कटुता, दु:ख और क्षोभ के अतिरिक्त तुम्हें कुछ नहीं दे सके। मुझे अपना लो सुनील, मुझे बचा लो।“ भावुकता के वशीभूत हो वह सुनील के कंधे से जा लगी। “सुनील, डीयर सुनील, तुम्हीं मेरी पहली और अन्तिम उपलब्धि हो, अब तुम्हें मुझ से कोई शिकायत नहीं होगी, सच सुनील, मैं वायदा करती हूँ।“

रूंधे गले से जाने कब तक वह क्या कुछ बोलती रही और वह अनजाने ही उसका सिर सहलाता रहा।

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं, माई डीयर नीलू, सच ही तुम बहुत बदल गयी हो। अब हम एक दूसरे के प्रति पूर्णत: समर्पित हो सकते हैं। कहते-कहते उसने नीला की नाक पकड़ कर हल्के हाथों से उसके गालों को थपक दिया। एक पल को वह चौंकी, शर्मायी और फिर अनायास हँस पड़ी – “ओह! नाटी ब्वाय, तुम्हारी नाक पकड़ने की पुरानी आदत अभी तक गयी नहीं।“

बहुत देर तक दोनों साथ-साथ हंसते रहे किंतु यह हँसी उसके अन्तर्मन से समझौता नहीं कर पा रही थी। रह-रह कर कानों में नीला के स्वर झनझना उठत्ते थे…हाँ…हुई तो…अपने राजीव के साथ्…राजीव्…अपना राजीव्…अपना राजीव्…

सहसा वह उठ खड़ा हुआ, “अरे क्या हुआ?”, नीला चौंकती सी बोली।
“कुछ भी तो नहीं”, वह स्वयं को संभालता सा बोला।
“ओह! मैं तो घबरा ही रही थी, अच्छा सुनो, अब दिल्ली पहुँच कर मेरे पास ही रूकना, फिर चाहोगे तो साथ-साथ लखनऊ चलेंगे। क्यों ठीक है न?”
“हाँ, हाँ एसा ही करेंगे”, फिर खिड़की से बाहर झाँकते हुए बोला – “लगता है, मुरादाबाद आ गया। कुछ खाने को ले आऊँ। बड़े ज़ोरों की भूख लग रही है, तुम्हें भी तो लगी होगी न्। अच्छा देखो, घबराना नहीं, मैं अभी आया”, कहते-कहते वह झटक से नीचे उतर गया। माथा फटा जा रहा था। डिब्बे से कुछ ही दूरी के फ़ासले पर एक खंबे की ओट ले कर वह खड़ा हो गया। नीला डिब्बे के बाहर मुँह निकाल कर उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। वही पाँच वर्ष पूर्व वाला सलोना चेहरा, वही हंसी और वैसा ही मोहक निमंत्रण्…पर किसे…किसे…और किसे……?”

गाड़ी ने सीटी दे दी, वह यंत्रवत वहीं खड़ा रहा, द्रष्टि नीला पर ही टिकी रही। वह बहुत बेचैन दिख रही थी। चंचल आँखें दूर-दूर तक उसी को ढूँढ रही थीं। तभी एक शब्द उसके कानों से टकराया……सु……नी……ल

चाह कर भी वह उत्तर न दे सका। गाड़ी धीरे-धीरे सरकते हुए नज़रों से ओझल हो गयी। वह वहीं खंबे की ओट लेकर सिगरेट के लंबे-लंबे कश खींचता रहा, धुएं के बनते-बिगड़ते छल्लों को गिनता रहा जो एक के बाद एक बनते चले जाते हैं, अतीत और वर्तमान के उन संधिपत्रों की तरह, जिन पर वह हस्ताक्षर नहीं कर पाया।
अहस्ताक्षरित संधिपत्र (Short Stories), इतिहास शोध-संस्थान, नयी दिल्ली, 1994, प. 156-165
भाषा विभाग, पंजाब, द्वारा प्रदत्त वित्तीय सहायता से प्रकाशित